धुंध के पार्टिकल
बहोत धुंध है भाई! हाँ इस देश में धुंध ही धुंध तो है! सूर्य देवता अब कित्ता प्रकाश फेंकें कि धुंध कटे? कहते हैं हर जगह पक्ष और प्रतिपक्ष होता है, सो नमी है तो खुश्की भी है। इनमें जब जंग छिड़ता है तो ठंडपन बीचबचाव करने उतर आता है। इसके बाद ये तीनों मिलकर, यहाँ गजब का धुंध क्रिएट करते हैं। नमी और खुश्की से ज्यादा यहाँ वातावरण में पसरती ठंडई इस धुंध के लिए दोषी है। मतलब इस देश में बीचबचावक-तत्व कभी-कभी धुंध के लिए पृष्ठभूमि का काम करते हैं। अब तय है कि ठंड ही इस देश में धुंध के लिए मुफीद मौसम लेकर आता है।
हमारे देश में हर चीज मौसमी है, यहाँ की नमी भी मौसमी है, बरसात के मौसम में पानी बरसता है नदी-नाले भरते हैं कुँआ तालाब जो है सो सब भरते हैं और सब ओर नमी ही नमी छा जाती है। फलस्वरूप तरू-पल्लव-पादप से युक्त यहाँ की धरती लोगों को भावप्रवण बनाती है, तभी तो “जो भरा नहीं है भावों से बहती जिसमें रसधार नहीं, हृदय नहीं वह पत्थर है” कहता हुआ कवि देशवासियों के हृदय में संवेदना जगाता हैं। हमारी यही भावप्रवणता हमें लोकतांत्रिक बनाती है अन्यथा हम भी अलोकतांत्रिक होते। आखिर, कहीं रेगिस्तान में लोकतंत्र पलता है?
हमारी इस लोकतांत्रिक प्रक्रिया से भावप्रवण जनसेवकों की आमद होती है! कुल मिलाकर भावप्रवण जनता भावप्रवण नेता पैदा करती है, जो गाहे-बगाहे आँसू बहाकर वातावरण को रसमय कर देते हैं, जो धुंध छँटने का आभास देते हैं। फिर जनता और जनसेवक दोनों एक दूसरे के साथ रसधार में बहने लगते हैं। शायद इसीलिए धुंध हटाने के लिए पानी के छिड़काव की चर्चा होती है।
लेकिन इस देश के मौसम का मिजाज बड़ा विचित्र है, वर्षात के बाद शीत ॠतु के आगमन के साथ वातावरण में बहुत भारीपन आ जाता है। ठंड का प्रकोप बढ़ने लगता है, इस परिस्थिति में “कोउ नृप होई हमई का हानी” का भाव प्रबल हो जाता है! तथा क्रांतिकारिता के भाव का अभाव हो जाता है कि क्रांति की गरमी सब कुछ उड़ा दे! परिणामस्वरूप दुनिया भर का खंज-अखंज यहाँ की हवा में आ मिलता है और नमी के साथ धुँवासा अपने देश के वातावरण में चहुँ दिसि प्रदूषण टाइप का छा जाता है। एकदम आजकल की राजनीति की तरह छायी हुई; कुछ भी कहो, कुछ भी देखो या बोलो सब कुछ धुंध में.! बस अपनी-अपनी कहते-सुनते और देखते रहो।
एक बार ऐसे ही मैं अपने देश की आर्द्र-संस्कृति से प्रभावित होकर एक जगह कह बैठा “यह तो बहुत गलत है” तो अगले ने मुझे रूखे हृदय से एकदम अपनी अलोकतांत्रिक भावभंगिमा के साथ बता दिया “गलत तो तुम हो जो इसे गलत बता रहे हो..चीज को ढंग से देख नहीं पा रहे हो” फिर मैं चुप होकर ठंडेपन को ओढ़ लिया था। अब मैं समझ गया था कि इस धुँवासे में प्रदूषण के पार्टिकल भी घुस आए हैं। मजे की बात यह भी कि यदि धुंधले वातावरण में आप नियम कायदे से चल भी रहे हों, तो भी निश्चिंत न होईए! क्योंकि कोई आकर जबर्दस्ती टक्कर मारेगा और शिकायत पर “कुछ दिखाई नहीं दे रहा..इसलिए एक्सीडेंट हो गया” कहते हुए पल्ला झाड़कर चल देगा। मतलब धुंध में न नियम चलता है और न कायदा! न कोई इसे सुनता है।
तो यही धुंध है! मैं तो कहता हूँ यहाँ के लोगों में यह भावप्रवणता और ठंडापन तथा वातावरण में प्रसरित प्रदूषण के पार्टिकल ही वे कारण है, जिसमें चीजें साफ दिखाई नहीं देती। बाकी ठंडी-गर्मी चलती ही रहती है, हमें केवल इस चलते चक्र पर ही भरोसा करना चाहिए। यह चक्र ही तो है कि, अपने देश में धुंध हो या कुहासा, ये अपने-आप छाते और छंटते रहते हैं। हाँ, अब इसमें शामिल हो रहे प्रदूषण के पार्टिकल खतरनाक हैं।