गज़ल
कभी हम फूल होते हैं, कभी हम खार होते हैं
कभी लाठी बुढ़ापे की, कभी तलवार होते हैं
आईने की तरह सच बोलते हैं हम हमेशा ही
जो जैसे देखता है वैसे ही दीदार होते हैं
कभी ना तोलना पैसे से तुम इनकी गरीबी को
मुफलिस लोग अक्सर बहुत ही खुद्दार होते हैं
पाएगा तू क्या आखिर जा के उनकी महफिल में
वहां भी कौन से ए दिल तेरे गमख्वार होते हैं
जोश के साथ लाज़िम है होश कायम रहे अपना
भटक जाते हैं अक्सर जो तेज रफ्तार होते हैं
ना उम्मीद रखना दोस्ती की हर किसी से तुम
मुकद्दर जानिए अच्छा अगर दो-चार होते हैं
— भरत मल्होत्रा