ग़ज़ल
तारीफ़ क्या करूँ तेरी आखों की नूर की
देदिप्त अंग अंग है’ सुरलोक हूर की |
वो नूर और ओज, सभी दिव्य देव के
राजा या’ रंक चाह है’ दैविक जुहूर की |
अभियान-स्वच्छता चली’ हर गाँव शह्र अब
आखें तलाशती सदा’ कूड़े की’ घूर की |
जो भी हुआ यहाँ सभी’ अल्लाह ही मेहरबाँ
सज़दा करूँ सदैव दयालू गफूर की |
जानम ज़रा पिलाना’ मुझे अपने’ हाथ से
दस्तूर, मय पियो तो’ शराबे तुहूर की |
गुंडे कसूरवार सभी बच निकलते’ है.
सुनते कहाँ यहाँ कोई अब बेकसूर की |
शिशु कृष्ण के चिकूर मनोहर हसींन हैं
गोकुल, गोपियाँ हैं’ दिवानी चिकूर की |
ये वक्त की नज़ाकतें, रकीबों से दोस्ती
‘काली’! दुआ क़ुबूल, इनायत हुज़ूर की |
जुहूर = तेज; शराबे तुहूर=स्वर्ग की मदिरा
कालीपद ‘प्रसाद’