हाथ वाला पंखा
तुम….
हमें वादों में उलझा कर
बेवकूफ़ बना कर
ख़ुश होते हो
और इतराते हो
अपने चहेतों के बीच
सीना फुलाते हो
अपनी
सियासी समझ पर
इस उमस भरी रात में
अपने दुधमुँहे को लेकर
रात दो बजे तक
बैठती हूँ छत पर
लाइट के इंतज़ार में
दिन भर की थकी
ऊँघती हुई
झलती हूँ
हाथ वाला पंखा
इसलिये कि चैन से
सोता रहे मेरा बच्चा
उधर ए सी में
ऐश करते हो तुम
और तुम्हारे बच्चे
मुझे याद है
चुनाव के समय
तुमने की थी
विकास की बातें
बराबरी की बातें
और समझाया था
कि बटन वही दबाना
जिसके सामने बना हो
“हाथ वाला पंखा”
— प्रवीण श्रीवास्तव ‘प्रसून’