लघुकथा

“इंसाफ”

“-अरे! ये क्या? आज का भोजन किसने तैयार किया है?” रात्रि भोजन के समय सभी खाने पर ज्यूँ ही एकत्रित हुए… थाली पर नजर पड़ते ही पिताजी चिल्ला उठे…
“-जरूर ई खाना मेरी पत्नी का बनाया हुआ है” सबसे छोटे बेटे की क्रोधित आवाज गूंजी…
“-सब जानते हैं उसे खाना बनाने में मन नहीं लगता है , फिर उसे क्यों बनाने दिया गया?” बड़े बेटे की दुखित आवाज गूंजी…
“-तो क्या केवल मेरी पत्नी ही चूल्हे में जलती रहे?” मझले बेटे की तीखी आवाज आई…
“-घर में कलह बढ़ता जा रहा था… दिन के भोजन बनाने के समय छोटी बहू नहाने-धोने व कमरे की सफाई की व्यस्तता का दिखावा करते हुए चौके की तरफ मुँह नहीं करती है… शाम में बाहर घूमने निकल गई या केवल सब्जी बनाने में हाँथ बंटा जिम्मेदारी समझ ली… परिवार नहीं टूटे अतः सुबह शाम खाना बनाने का बंटवारा मैं कर दी”
“लो बहुत होशियारी की हो तो खाओ आज मजेदार लज्जतदार खाना… दो रोटी के बराबर एक , तीन रोटी के बराबर एक , चार रोटी के बराबर एक रोटी”
“ना निमन गीत गायब ना दरबार बुला के जाएब” मझले बेटे-बहू की एक साथ व्यंग्यात्मक आवाज गूंजी
“छोटी बहू के साथ किसी का सम्पर्क नहीं होगा और वो केवल अपना खाना तब तक अलग बनाएगी जब तक सबके लिए पतली रोटी बनाना शुरू नहीं कर देती है…” पिताजी की रोबदार आवाज गूंज गई…

*विभा रानी श्रीवास्तव

"शिव का शिवत्व विष को धारण करने में है" शिव हूँ या नहीं हूँ लेकिन माँ हूँ