नवगीत
दर्द मुस्काने लगा,
मातमों का राज है !
है तिमिर की वंदना अब
रो रहा उजियार है
अब व्यथा नग़मे सुनाती
पीर का संसार है
सत्य बौना हो गया,
घुट रही आवाज़ है !
वक़्त,लगता हो महाजन
किश्त भरवा रहा
ज़िन्दगी है कर्ज़ जैसे
बाज़ियां हरवा रहा
मूल तो ठहरा वहीं पर,
बढ़ रहा पर ब्याज है !
त्रासदी का दौर है यह
सांस घुटती जा रही
बस्तियां आतंकमय हैं
चीख बढ़ती जा रही
दुर्दिनों का तांडव है,
कोढ़ में अब खाज है !
— प्रो. शरद नारायण खरे