ग़ज़ल
अम्बार बमों के लगाने लगा है आदमी |
डंका युद्ध का बजाने लगा है आदमी ||
तबाही के सिवा नहीं है कुछ जिस मुकाम पर |
रास्ते उस तरफ बनाने लगा है आदमी ||
कभी अल्लाह तो कभी ईश्वर के नाम पर |
सियासत अपनी चमकाने लगा है आदमी ||
जमाने में बढ़ गई है भूख इस कदर |
बेबस आदमी को खाने लगा है आदमी ||
जानवरों से तो बेखौफ है मगर |
खौफ अपनी ज़ात से खाने लगा है आदमी ||
छीनकर मजलूम – बेसहारों का हक़ |
ताले तिजोरियों पर लगाने लगा है आदमी ||
बुलंदियां आसमां की छूकर भी आज |
कदमों पे ही रुक जाने लगा है आदमी ||
दर्द आज सब कुछ बन गया है आदमी मगर |
आदमी बनने से कतराने लगा है आदमी ||
— अशोक दर्द