कविता : फुलवारी
फुलवारी शब्द कितना सुन्दर है ! वाह !
हम कहते हैं कि
वाह ! वाह ! देखो ,
फुलवारी कितनी सुन्दर सजी है ,
कितने रंग – बिरंगे फूल खिले हैं ।
और
हमारा मन कितना प्रफुल्लित हो जाता है ,
फूलों की तरह ही खिल जाता है ।
सच , फुलवारी , फुलवारी, फूलों भरी ।
आपने फूलों भरी फुलवारियाँ देखी हैं न !
चलिये, मैं दिखाऊँ आपको
जीवन की , समाज की व देश की फुलवारियाँ,
जिनमें संग – संग फूलों के काँटे भी हैं ।
अमीर- गरीब की , ऊँच – नीच की ,
जात – पात की ।
दंगों व आतंकवाद के कँटीले शूल ,
भारतमाता के दामन को करते हैं तार- तार
देखा है किसी ने रोती माँ को ज़ार – ज़ार ?
किस गरीब को देखकर भला कौन – सा अमीर रोया है ?
हाय ! इनसान ने यह कौन – सा बबूल बोया है ?
क्यों समाज़ की फुलवारी में मज़हब के नाम पर सांप्रदायिक दंगे होते हैं
क्यों आतंकवाद के बमों में , निर्दोष जान अपनी खोते हैं,
क्यों नृशंस अत्याचार होते हैं,
क्यों मासूमों के दामन दाग़दार होते हैं ?
क्यों गरीब क़फ़न का पैसा भी जुटा नहीं पाता है ?
क्यों एक गरीब बच्चा पढ़ नहीं पाता है , क्यों वह बाल मज़दूर बन जाता है ?
नहीं है किसी के पास इन सब प्रश्नों के जवाब
क्यों होता रहेगा सबका यूँ ही खानाख़राब ?
ओ मेरे देश की फुलवारी के नौजवानो , कर्णधारो , महकते फूलो !
चेतो , अब तो फुलवारी को करीने से
आगे – आगे बढ़ाओ,
सुरभित फुलवारी को सजाकर
धरातल देश का समतल बनाओ ।
— रवि रश्मि ‘अनुभूति ‘