कविता

“सर्दी में कम्पन, गर्मी में स्वेदकण”

कुहासे की चादर
मौसम ने ओढ़ ली,
ठिठुरन से मित्रता,
भास्कर ने जोड़ ली।

निर्धनता खोज रही,
आग के अलाव,
ईंधन के बढ़ गये
ऐसे में भाव।

हो रहा खुलेआम,
जंगलों का दोहन,
खेतों में पनप रहे
कंकरीट के वन।

ठण्ड से काँप रहा,
कोमल बदन,
कूड़े से पन्नियाँ,
बीन रहा बचपन।

खोज रहा नौनिहाल,
कचरे में रोटियाँ,
शासन नोच रहा,
गोश्त और बोटियाँ।

उदर में जल रही,
भूख की ज्वाल,
निर्धन के पेट में,
अन्न का अकाल।

कुहरा तो एक दिन,
छँट ही जायेगा.
उसके बाद सूरज भी,
गर्मी दिखायेगा।

सर्दी में कम्पन,
गर्मी में स्वेदकण,
दूषित हुआ है,
सारा वातावरण।

जिन्दगी में सब कुछ,
झेलना जरूरी है.
नून, तेल-आटा,
लाना मजबूरी है।।

(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)

*डॉ. रूपचन्द शास्त्री 'मयंक'

एम.ए.(हिन्दी-संस्कृत)। सदस्य - अन्य पिछड़ा वर्ग आयोग,उत्तराखंड सरकार, सन् 2005 से 2008 तक। सन् 1996 से 2004 तक लगातार उच्चारण पत्रिका का सम्पादन। 2011 में "सुख का सूरज", "धरा के रंग", "हँसता गाता बचपन" और "नन्हें सुमन" के नाम से मेरी चार पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। "सम्मान" पाने का तो सौभाग्य ही नहीं मिला। क्योंकि अब तक दूसरों को ही सम्मानित करने में संलग्न हूँ। सम्प्रति इस वर्ष मुझे हिन्दी साहित्य निकेतन परिकल्पना के द्वारा 2010 के श्रेष्ठ उत्सवी गीतकार के रूप में हिन्दी दिवस नई दिल्ली में उत्तराखण्ड के माननीय मुख्यमन्त्री डॉ. रमेश पोखरियाल निशंक द्वारा सम्मानित किया गया है▬ सम्प्रति-अप्रैल 2016 में मेरी दोहावली की दो पुस्तकें "खिली रूप की धूप" और "कदम-कदम पर घास" भी प्रकाशित हुई हैं। -- मेरे बारे में अधिक जानकारी इस लिंक पर भी उपलब्ध है- http://taau.taau.in/2009/06/blog-post_04.html प्रति वर्ष 4 फरवरी को मेरा जन्म-दिन आता है