ग़ज़ल
निर्दयी कंस सा’ दानव कोई मामा न हुआ
सच यही बात कि उस सा कोई पैदा न हुआ |
रोज़ ही हादसा’ क्यों हो रहा’ है रेल में’ अब
रेल बन जायगा’ अब गोर, गर अच्छा न हुआ |
हादसा-ए रेल में निर्दोष ही’ मारे गये’ हैं
धायलों को भी’ सहारा दवा’ देना गवारा न हुआ |
ज़ख्म सीने का’ सदा रिसता’ रहा बारम्बार
मन सरोवर गया’ भर, किन्तु दरिया न हुआ |
अटपटा ख़ूब लगा जब कोई आवाज़ न दी
रहनुमा को सज़ा, फिर भी कोई फ़ित्ना न हुआ |
थी बहुत शक्त सुरक्षा, हवा’ भी गर्म बहुत
देखने भीड़ बहुत किन्तु, तमाशा न हुआ ?
अब बनेंगे नये’ मंत्री सभी’ उत्सुक जानने
कौन अन्दर, मिली’ किसको सज़ा, चर्चा न हुआ |
सात जन्मों का’ है’ बंधन, यही’ कहते पंडित
सात जन्मों कहाँ’ इक जन्म निभाना न हुआ |
क्या है सच्चा जहाँ’ इंसान बना ले डेरा
जायदादों को’ जला शक्ति दिखाना न हुआ ?
इंतज़ार और करे क्या, है’ अँधेरा ‘काली’
दो पहर ढल चुका है किन्तु उजाला न हुआ |
कालीपद ‘प्रसाद’