किशोरावस्था से मुलाकात
मुझे समझ न आए बात, किशोरावस्था से मुलाकात
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
रहूं वैसे तो अपनों में
मगर खोई-सी सपनों में
दिवास्वप्न करें बेचैन, नहीं लेने देते हैं चैन
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
अचानक दर्पण से हुआ प्यार
निहारूं खुद को बारम्बार
करूं हरदम मैं यही विचार, कि आए मुझमें कैसे निखार
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
तनिक बदलाव हुए तन में
हुए कुछ परिवर्तन मन में
मुहांसे चेहरे पर आए, कुहांसा भावों पर छाए
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
कभी थी इच्छा मेले हों
सुहाए अब कि अकेले हों
शोर अब तनिक नहीं भाए, न कुछ भी मन को बहलाए
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
करूं मैं अपने से ही बात
न सुध हो कब हो दिन कब रात
डरी-सहमी देखूं हर ओर, कि जैसे मन में हो कोई चोर
हुई कब रातों में, मैं खोई बातों-बातों में-
BAHUT SUNDER
प्रिय प्रदीप भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
लीला बहन , कविता बहुत अछि लगी .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.