दर्पण
जीवन के अंतर्द्वंद को समझना इतना आसान कहाँ ,
खिलते हैं फूल बगिया में पर आनंद माली के बिन कहाँ !!
खेल तमाशे बचपन के माँ के साए में ही मिलते हैं ,
माँ के बिना संसार……..में मायके का आन्नद कहाँ !!
सजाकर सोलह श्रृंगार फिर भी लगता कुछ अधूरा है ,
लाख खुशियाँ हों संसार में पिया के बिन ससुराल कहाँ !!
लाख बनालो बेगानों को सौदागर अपने जीवन का ,
उसूलों को खोकर जीवन जीने का सच्चा आधार कहाँ !!
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ
SUNDER