कविता

कविता .. दलील

अनजान बेचैनियों में लिपटे,
मेरे ये इन्तज़ार लम्हें
तुम्हें आवाज़ देना चाहते हैं..
पर मेरा मन सहम जाता है ।
तुम जानते हो क्यों?
फिर सवाल…
तुम हंस पड़ोगे ,
या तुम्हारे पास कोई लम्बी सी दलील होगी ,
लाज़मी है …
और तब भी मेरे लब खामोश ही होंगे ,
जबकि मेरे अंदर
कितने सारे तुफान बांध तोड़ने पर आमादा है।
मन का ना जाने कौन सा अनछुआ कोना
बगावती हो रहा है… मेरे ही खिलाफ़ ..
जो भर लेना चाहते है सांसो मे इस लम्हें की खुश्बू
भींग जाना चाहता है उठ रहे एहसासों के ओस में
और खिलना चाहता है, खिलखिलाना चाहता है
तुम मत सुनना ये शोर
क्योंकि मै जानती हूँ
तुम अब भी हसोंगे या …
या तुम्हारे पास होगी वही लम्बी दलील ||

— साधना सिंह
गोरखपुर

साधना सिंह

मै साधना सिंह, युपी के एक शहर गोरखपुर से हु । लिखने का शौक कॉलेज से ही था । मै किसी भी विधा से अनभिज्ञ हु बस अपने एहसास कागज पर उतार देती हु । कुछ पंक्तियो मे - छंदमुक्त हो या छंदबध मुझे क्या पता ये पंक्तिया बस एहसास है तुम्हारे होने का तुम्हे खोने का कोई एहसास जब जेहन मे संवरता है वही शब्द बन कर कागज पर निखरता है । धन्यवाद :)