ग़ज़ल
यूँ तीरगी के साथ ज़माने गुज़र गए ।
वादे तमाम करके उजाले मुकर गए ।।
शायद अलग था हुस्न किसी कोहिनूर का ।
जन्नत की चाहतों में हजारों नफ़र गए ।।
ख़त पढ़ के आपका वो जलाता नहीं कभी ।
कुछ तो पुराने ज़ख़्म थे पढ़कर उभर गए।।
उसने मेरे जमीर को आदाब क्या किया ।
सारे तमाशबीन के चेहरे उतर गए ।।
क्या देखता मैं और गुलों की बहार को ।
पहली नज़र में आप ही दिल मे ठहर गए ।।
अरमान भी मिरे थे कि पहुंचेंगे चाँद तक ।
इस बेरुखी के दौर में सपने बिखर गए ।।
कुछ खैर ख्वाह भी थे पुराने शजर के पास ।
आयीं जो आँधियाँ तो वो जाने किधर गए ।।
तकदीर हौसलों से बनाने चला था वो ।
आखिर गयी हयात सितारे जिधर गए ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी
मौलिक अप्रकाशित