गज़ल
कुछ पता ही ना चला कैसे, कहां, किधर गई
चार दिन की ज़िंदगी ना जाने कब गुज़र गई
एक-एक करके सारे हमसफर बिछड़ गए
बस धुआं-धुआं ही था जहां तलक नज़र गई
आँधियों से शर्त लगाकर चिराग जल उठे
ज़मीं से आसमान तक रोशनी बिखर गई
रास्ता निकलने का खुद-ब-खुद मिलता गया
कश्ती मेरी तूफान के सीने में जब उतर गई
देख फिर से आ गया काफिला बहार का
एक फूल क्या खिला दूर तक खबर गई
— भरत मल्होत्रा