गज़ल
मेरी हर बात में गलतियां ढूंढ़ने लगे हैं वो
जो थे कभी अपने गैर से लगने लगे हैं वो
बदलाव उनका मुझको आता नहीं समझ
खूबसूरत चित्र को बदरंग करने लगे हैं वो
बदलाव आया उनमें तब से सोचता हूं मैं
जबसे बढ़ने लगे कदम कुढ़ने लगे हैं वो
भूल गये हैं जमीनी हकीकत की दास्तां
नये नये तिलिस्म अब गढ़ने लगे हैं वो
‘व्यग्र’ हूं उनकी इन सब हरकतों से मैं
छत पर बिन सिड्डियां चंढ़ने लगे हैं वो
— व्यग्र पाण्डेय