हकीकत
गर सच तुझमें !
झूठ के साथ, दोस्ताना कैसा ?
है ! मुझमें ही फरेब ।
तो , ये निभाना है कैसा ?
प्यार नहीं तो, दिखावा है क्यूँ ?
चेहरें पे सतरंगी ये मुखोटा कैसा ?
न अब शिकवे -शिकायत, ना दर्द ।
भर गए जख्म, फिर शब्द बने नासूर कैसा ?
कसमें खाते थे , मेरी सच्चाई की जो ।
मेरी हर बात पे आज, सवाल है कैसा ?
अपने बिछडने पे अब गम नहीं होता ।
फिर खुद से ही, यूँ जुदा होना कैसा ?
लहू बनके निकलेगी हक़ीक़त “रचना”
गुजरने पे दुश्मनों के, हो पशेमां कैसा ?
फितरत है क्या ? ऐ जिंदगी तेरी ।
मिटाकर मुझे जीस्त ए जनाजा कैसा ?
— रीना सिंह ( रचना )