लघुकथा- बैल
हरिया के माथे पर चिंता की लकीरें उभर आई. साहूकार कर्जे में अनाज के साथ बैल भी ले गया. कमल के स्कूल की फीस जमा करना थी और बेटी की शादी भी. इन सब के लिए जरुरी था कि आगामी फसल अच्छी हो. अभी खेत जुताई बाकी थी. इसके लिए बैल चाहिए थे.
“ साहूकार बैल देने को तैयार है धनिया. मगर उस की एक शर्त है कि छुटके की बहुरियाँ को बैल के बदले साहूकार के यहाँ काम करना पड़ेगा.”
“ यह क्या कहा रहे हैं कमल के बापू ! आप तो जानते है कि साहूकार को. वह चाहता है कि छुटके की बहुरियाँ भी लीला, टीना, झमकू की तरह उस का सबकुछ काम करे,” यह कहते हुए हरिया की पत्नी ने बहुरिया से पूछा, “क्या तू यह सब करना चाहेगी ?”
“ ना जीजी ! हमसे यह सब ना होगा.”
“ तो फिर का करे ? कुदाली से खेत खोदे ?”
“ खेती क्या बैल से होवे हैं ? वो साहूकार अपनी कुइच्छा का हल अपने बैल पर ही चला ले. हम स्वयम ही बैल बन जाएंगे जीजी,” कहते हुए बहुरिया ने स्वाभिमान का जुड़ा अपने कन्धों पर उठा लिया.
— ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’