स्वयं की संतुष्टि
वसुदेवजी को देखते ही बच्चे उनकी तरफ भागे। सब उन्हें घेर कर खड़े हो गए। वसुदेवजी साथ लाई हुई वस्तुएं उनके बीच बांटने लगे। बच्चों के मुस्कुराते देख कर वसुदेवजी के चेहरे पर संतोष झलक रहा था। वह हर महीने इस अनाथालय में आकर इसी प्रकार बच्चों में कुछ उपहार बांट जाते थे।
लौटते समय उनके साथ आए उनके मित्र ने कहा।
लौटते समय उनके साथ आए उनके मित्र ने कहा।
“यदि बुरा ना मानें तो एक बात पूँछूं।”
“अवश्य पूँछिए”
“कभी कभार आकर बच्चों को कुछ दे जाना तो समझ आता है। लेकिन हर महीने आना। क्या कोई विशेष बात है।”
कुछ सोंच कर वसुदेवजी बोले।
“बस यह समझ लीजिए कि आभावों में बीते अपने बचपन को संतुष्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ।”
साथ आए मित्र उनकी बात समझने का प्रयास करने लगे।