गज़ल
ज़िंदगी कट गई इम्तिहां की तरह
कोई भी ना मिला मेहरबां की तरह
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छोड़कर चल दिए बारी-बारी सभी
मैं हूँ टूटे-पुराने मकां की तरह
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कान दीवारों के होते हैं आजकल
आँख से काम लो तुम ज़ुबां की तरह
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मुझको भूले हुए जिनको बरसों हुए
याद आते हैं वो दास्तां की तरह
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ज़ख्म दिल के हरे और भी हो गए
बहार भी आई मुझपे खिज़ां की तरह
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ज़मीं की तरह भीगता तू रहा
मैं सिसकता रहा आसमां की तरह
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आभार सहित :- भरत मल्होत्रा।
प्रिय भरत भाई जी, आपकी ग़ज़ल हमें बहुत अच्छी लगी, उसके लिए हमारी बधाई स्वीकारें. हमने सदाबहार कविताओं के सदाबहार काव्यालय शुरु किया हुआ है. अगर आप या कोई और भी इच्छुक हों, तो अपनी ई.मेल लिख दें, बाकी बातें मेल पर होंगी. एक बार पुनः आपका हार्दिक अभिनंदन.