लघुकथा

“मुनाफे के स्वाद में मानव परास्त और खाद्यान जहरीला”

डूबते उतिराते धान की फसल खेत से खलिहान को तिरछे ताकते हुए, मुँह छुपाते हुए किसान के घर में ऐसे आई मानों खेत और खलिहान का कभी कोई नाता ही नहीं रहा है। अगर कभी कोई नाता था भी तो वह पराली देवी के तलाक के बाद खत्म हो गया है और पराली के नसीब में जलने के अलावां कोई चारा नहीं है। खैर, धान का छिलका उतरा और सुकोमल चावल बाजार और मेहनतकस किसान को लाल कर दिया तो पुलाल यानी पराली, अपने दमखम के साथ अधकटे खेतों को लाल कर गई जिसे देख आसमान भी हिल गया और जमीन खाँसने लगी। जब नाक में दम हो गया तो खूब हल्ला हुआ कि जानवरों का भोजन और गरीबों की छत, मुफ्त में मुहैया कराने वाली पराली को जलाना किसी भी दशा में उचित नहीं है। इस जहरीली समस्या का न तो कोई निदान निकलना था न निकल ही पाया और इसका विषैला भार अपने कंधे पर उठाए हुए, कर्ज से बोझिल किसान गेहूँ के नए अंकुरण में महँगी खाद और महँगे पानी को मिट्टी में मिलाने को बाध्य हो रहा है। बोरी की बोरी यूरिया, डाई और जिंक-पोटास की प्लास्टिक वाली चमकती थैली सायकल पर बिछलाने लगी और दुकानदार अपना ड्रावर खोलने, बंद करने लगा। नयी नयी दो हजारी पिंक रंगी नोट ए टी एम से झरने लगी और लगा कि किसान सही में मालदार है कि इतने में झिनकू भैया बैंक से नोट सरियाते हुए बाहर निकले। राम रहारी हुई और पता चला कि बाजार में धान का भाव बहुत कम है और सरकारी खरीद केंद्र पर अभी काँटा की व्यवस्था नहीं हो पाई है, बाबू लोग अपना थैला रजिस्टर लेकर आते हैं और चहलकदमी करके हाजिरी लगाकर लापता हो जाते हैं। यह तो पेंसन का पैसा है और कुछ बच्चें मेहनत मजदूरी करके कमाते हैं और पेटकपती करके घर पर भेजते हैं जिससे गृहस्ती चला रहा हूँ। पैतृक जमीन है उसे बंध्या रखना भी पाप है यही सोचकर खाद पानी डाल रहा हूँ, इससे बढ़िया तो बाजार से खरीद कर खाते तो सुखी रहते।

वो देखों दुकान पर लौकी गिरी हुई है, देखने में बहुत ही सुंदर लग रही है, खरीद लेता हूँ पालक और बथुवा से मन भर गया है। कुछ मनफेर भी होना चाहिए, लौकी देखकर भौजी भी खुश हो गईं और छौंका लग गया। शाम को पूरा परिवार साथ में खाने बैठा, पहला कौर मुँह में जाते ही पता चला कि लौकी तो कड़वी है, जहरीली लौकी की बनी बनाई सब्जी फेंकनी पड़ी और सभी लोग दाल रोटी और चावल से अपना पेट भर कर डकार लेते हुए उठे ही थे कि दस्त और उल्टी का आक्रमण शुरू हो गया। आधे घंटे में सब के सब कालरा के गिरफ्त में आ गए और बड़ी मुश्किल से जान बचाकर दो दिन बाद दवाखाने से अपने घर वापस आये। बीस रुपये की लौकी बीस हजार का चूना लगा गई। खाद और खेतों में घास जलाने वाले छिड़काव अभी बाकी ही है और झिनकू भैया व परिवार पहले ही पीले पड़ गए हैं। पैसा गया पर जान बच गई, प्रभु का लाख लाख सुक्र है। अब दूसरी पेंसन के इंतजार में गेंहूँ भी अपना रंग बदल ही देगा, कारण ठंडी भी तो आँख मिचौली ही खेल रही है, बिना कड़ाके की ठंडी के रवि की फसल क्या स्वाद दे पाएगी। उम्मीद पर किसान जी रहा है सरकारी व्यवस्था तो कागजों पर गुलछर्रा उड़ाते ही रहती है, मुखिया कोई भी हो, हरी और लहलहाती फसल तो आवारे बछड़े ही चर रहें है। उन्हें हाँकने और मना करने में जान का जोखिम ही है। कब धारदार नुकीली सिंग आँत खींचकर बाहर निकाल दे कोई नहीं जानता। न इन जंगली जानवरों से छुटकारा मिल पा रहा है न जहरीली खाद व जहरीले विचार से जो सदैव अपने फायदे के लिए व्यवसाय करते हैं मानव मरें या जिए, मुनाफे के लक्ष्य में मानवता परास्त होते जा रही है और खाद्यान जहरीला।

महातम मिश्र, गौतम गोरखपुरी,

*महातम मिश्र

शीर्षक- महातम मिश्रा के मन की आवाज जन्म तारीख- नौ दिसंबर उन्नीस सौ अट्ठावन जन्म भूमी- ग्राम- भरसी, गोरखपुर, उ.प्र. हाल- अहमदाबाद में भारत सरकार में सेवारत हूँ