पिता के अरमान
कमाता रहा वह जीवन भर
एक पल में लूटाने को।
सपनें तक बेच आया वह
बेटी की डोली सजाने को।
नींदें बेचकर लाया वो
अलंकारों का भंडार जो।
सज रहा था आज घर-आंगन
एक परी का संसार बसाने को।
बरमाला के फूलों में
आशीषों की खुशबू थी।
दहेज के उस दोपहिये में
एक बाप की थोड़ी खुदगर्जी थी।
व्यंजनों की थाली में
मिष्ठानों का अरमान सजा था।
मेहमानों की खुशी भांपकर
पिता का हृदय तृप्त हुआ था।
कपड़े-लते,गहने, साधन
पितृ प्रेम से चहक रहे थे।
जा रही थी बेटी पी के घर
और नैनों के मोती बहक रहे थे।
मुकेश सिंह
सिलापथार,असम
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