गज़ल
रेत का महल हूँ हवा से भी डर जाता हूँ
ज़रा सी ठेस क्या लगती है बिखर जाता हूँ
हालातों ने बदल डाली इस कदर सूरत
आईना देखकर कभी-कभी डर जाता हूँ
हर सुबह रोज़ होता है नया जन्म मेरा
रात को रोज़ मैं सोता नहीं मर जाता हूँ
ये बदनसीबी मेरा साथ छोड़ती ही नहीं
चली आती है उधर ही मैं जिधर जाता हूँ
देखकर बच्चों का उम्मीद से भरा चेहरा
शर्म आती है बहुत जब भी मैं घर जाता हूँ
— भरत मल्होत्रा