कुलभूषण
माँ का आशीर्वाद और
पत्नी की बेआवाज़ सिसकियाँ
जरुर भेद पायी होगी
शीशे की मोटी दिवार..
और पहुँच पायी होगी तुम तक,
अनगिनत प्राथनाओं की दुदुंभी भी!
पर सोचती हूँ कैसे तुम अटूट अडिग होगे
और रोका होगा बाजुओं को
जो बिखरते माँ -पत्नी को समेट सके!
अटल अविचल बने
कैसे अड़े रहे होगे न तुम
आंसुओं की मेढ़ के समक्ष!
कितने जतन से रखा होगा ना
माँ ने भी तुम्हारा नाम ‘कुलभूषण’
तुम सच में देदीप्यमान नक्षत्र
कुल के भूषण ही निकले
जिसे नापाक उचक्का उड़ा ले गया!!
सतत अकथ सम्मिलित प्रयास
जरुर वापस ला पायेगा तुम्हें
उन राक्षसों के बीच से
और फिर कोई दिवार
रोक ना पायेगी तुम्हें
माँ के चरण वंदन
और अर्धांगिनी से आलिंगन को..
स्वाति
‘बेआवाज सिसकियां’
रचना प्रक्रिया का भाव समझ में समर्थ है ।
‘कुल के भूषण निकले’
उलझा हुआ है और अस्पष्ट शायद कई अर्थ में हो।
नई तकनीक से लैस है कविता पर महिलाओं पर कविता का अनुनाद में दोहरावपन लिए हुए है ।
बहुत सुंदर
हार्दिक आभार