पर्यावरण के दोहे
बिगड़ा है पर्यावरण,बढ़ता जाता ताप !
ज़हरीली सारी हवा,कैसा यह अभिशाप !!
पेट्रोल,डीजल जले,बिजली जलती ख़ूब !
हरियाली नित रो रही,सूख गई सब दूब !!
यंत्रों ने दूषित किया,मौसम और समाज !
हमने की है मूर्खता,हम ही भुगतें आज !!
नगर घिर गये धुंध में,धूमिल सारे गांव !
धुंआ-धुंआ जीवन हुआ,गायब सारी छांव !!
दिखती ना पगडंडियां,चारों ओर गुबार !
तिमिर विहँसता नित्य ही,रोता है उजियार !!
जनजीवन रोने लगा,सिसक रहा इनसान !
हर प्राणी भयभीत है,आफत में है जान !!
आवाजाही रुक गई,मंद हुआ व्यापार !
शिक्षा,ऑफिस,काम पर,हुई सघनतम् मार !!
प्रकृति बिलखती आज तो,कारण है अविवेक !
यदि हम चाहें निज भला,तो करनी हो नेक !!
आत्मचेतना से मिटे,प्रियवर आज कलंक !
सभी करें कुछ अब खरा,क्या राजा ,क्या रंक !!
फिर से अब आबाद हों,सभी बस्तियां-गांव !
तभी मिलेगी वक़्त को,मनभावन इक छांव !!
— प्रो. शरद नारायण खरे