बहुत कुछ बाकी है
खो गई हैं पलकों में कई रातें
हवा में गुम हो गई मेरी ख़ामोशी
एक गीली शाम
ओस में लिपटी घास
और सर्द हवायें
गूंज रही है सीने में
दिल की अज़ीब धकधक
जिसकी गति सुन
हम रहते हैं सहज
कि अभी मौत आनी बाकी है
कहीं मैंने सुना था–
कि मौत भी होती है ख़ूबसूरत
कई प्रश्न दौड़ पड़े
मेरे दिमाग के अन्दर
किसने लिखा होगा इसको?
जो जिन्दगी से हार गये या
मौत को भी प्यार करते थे
जिन्दगी की तरह!
पता नहीं
कब कहाँ,कौन मिल जाये
तो क्या साँसों से
महसूस होती है यह दुनिया
शब्द है कि मोती
जो बिखरते चला जाता है
पन्ना -दर -पन्ना
फिर भी कहने को रह जाता है
बहुत कुछ बाकी
और ठिठक जाती है क़लम
शब्दहीन… महामौन।।