राजनीति

कर्जमाफी – एक मुद्दा या सवाल

आजकल देश मे कर्जमाफी का मुद्दा जोरों पर है। हर राजनैतिक दल कर्जमाफी की नैया से राजनैतिक बैतरणी पर उतरने की जुगत में लगा हुआ प्रतीत हो रहा है। उद्योगपतियों और पूंजीपतियों से कोई राजनैतिक दल कर्जमाफी का वादा नहीं करता बल्कि राज्यों के बहुसंख्यक किसानों से कर्जमाफी की बात जरूर करता है। क्योंकि आज भी भारत की 65 प्रतिशत आवादी खेती-किसानी पर निर्भर है। साथ ही इन पर आश्रित नौकरीपेशा पारिवारिक सदस्य भी कुछ राहत  महसूस कर सत्ता की चाभी इन्हें सौंप दें।
  आखिर कर्ज की जरूरत किसी भी व्यक्ति को क्यों पड़ती है। इसके पीछे कई कारण गिनाये जा सकते हैं – जिसके मूल में आवश्यकता से अधिक खर्च करने की मजबूरी भी एक महत्त्वपूर्ण कारण माने जा सकते है। जैसे स्वास्थ्य, शिक्षा, न्याय के लिए न्यायिक व्यवस्था में चक्कर लगाने के साथ जायज-नाजायज आर्थिक शोषण होना। फिर नम्बर आता है उपभोक्ता सामग्रीयों में महंगाई।
      जहाँ तक महंगाई का प्रश्न है उसमें भी कई कारण उजागर होते हैं। जैसे सरकार द्वारा वसूले जानेवाले अप्रत्यक्ष कर, उद्योगों में कमीशनखोरी के आधार पर प्राप्त कच्चामाल की आपूर्ति के उपरान्त तैयार सामग्री क़ाआ मूल्य निर्धारण के उपरांत विज्ञापन खर्च की भरपाई क़ा जुड़जाना भी एक कारक है। तदुपरान्त व्यापारियों द्वारा मनमानी कीमतों पर बेचा जाना भी एक बड़ी समस्या के रूप में उभरती है।
    व्यापारी भी क्या करे वर्तमान भ्रष्टाचारी व्यवस्था में नहीं चाहकर भी सरकारी मुलाजिमों से लेकर नेतानुमा रंगदारों को खुश रहने की मजबूरी में उपभोक्ता से मनमानी कीमत वसूलने को मजबूर होता है। शायद ही कोई ऐसा विभाग या विभाग से सम्बद्ध कोई कर्मचारी होगा जो अवैध कमाई में लिप्त नहीं होगा। उनकी भी अपने पद पर बने रहने की मजबूरी होती है।
  एक व्यापारी, उद्योगपति, नौकरीपेशा तो किसी नमूने जीवन-यापन बखूबी कर लेता है पर, कृषि आधारित परिवारों के सामने कर्ज लेने के सिवा और चारा ही कहाँ बचता है। उनके उत्पादों की कीमत कोई दूसरा तय करता है  जबकि उपभोक्ता सामग्रियों की कीमत स्वयं उत्पादनकर्ता या व्यापारी तय करता है। जिसे बहुत बड़ी बिडम्बना कहें या भद्दा सा मजाक ?  किसानों को अपने उत्पाद की कीमत भी तय करने का अधिकार आजाद भारत में प्राप्त नहीं है। कभी-कभी तो लागत मूल्य से भी कम कीमत मिलने की स्थिति में सड़कों  पर या तो फेंकना पड़ता है या सड़ने को छोड़ना पड़ता है। परिणामतः किसानों द्वारा आत्महत्याओं की बढ़ती संख्या के रूप में कुयसित कलंक।
   एक अपुष्ट आंकड़ों के आधार पर जहाँ 90 हजार करोड़ रुपये का कर्ज किसानों पर है वहीं उद्योगपतियों, व्यापारियों पर लाखों करोड़ के कर्ज से देश अवगत है। जहाँ बैंकों की दशा सुधारने के नाम पर लाखों करोड़ रुपये की सहायता राशि का अनुदान दिया जाता है वहीं किसानों के कर्जमाफी की बात पर देश की आर्थिक दशा कमजोर होने की दलील दी जाती है।
    अब जरा गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि कर्ज के लिये बैंक के बाबुओं से लेकर पदाधिकारियों के जेब तो किसान और उद्योगपति दोनों ही अवैध रूप से भरते हैं तो फिर किसानों या छोटे कर्जदारों पर जहाँ एक ओर सख्ती बरते जाने के कारण आत्महत्या जैसी मजबूरी उतपन्न होती है वहीं बड़े ऋणधारक मौजमस्ती करते हों तो समाज में वैमन्यता तो बढ़नी ही बढ़नी है।
     नोटबन्दी को ही दीखें तो कोई भी पूंजीपति, अधिकारी या नेता महीनों चले आमआदमी की पंक्ति में नहीं दिखे। फिर भी 99℅ नोट अर्थ व्यवस्था में वापस आ गए। जिससे स्पष्ट उद्घोषणा हो जाती है कि देश में काला धन था ही नहीं। कालाधन का काला सच मात्र मनगढ़ंत था या वर्षों से राजनैतिक दलों का दुष्प्रचार मात्र था।
   कालेधन की गणना तो आजादी के तत्काल बाद रुपये के आर्थिक मूल्यांकन के आधार पर होना चाहिए था। जिसमें कुल वार्षिक राष्ट्रीय आय और विदेशी कर्जों को जोड़कर तथा योजनाओं, वेतन भत्ताओं आदि के कुल खर्च को घटाकर आंकड़े पर गौर करना होगा तब कालेधन क़ाआ सच शायद सामने आ सके।

श्याम स्नेही

श्री श्याम "स्नेही" हिंदी के कई सम्मानों से विभुषित हो चुके हैं| हरियाणा हिंदी सेवी सम्मान और फणीश्वर नाथ रेणु सम्मान के अलावे और भी कई सम्मानों के अलावे देश के कई प्रतिष्ठित मंचों पर अपनी प्रस्तुति से प्रतिष्ठा अर्जित की है अध्यात्म, राष्ट्र प्रेम और वर्तमान राजनीतिक एवं सामाजिक परिस्थितियों पर इनकी पैनी नजर से लेख और कई कविताएँ प्रकाशित हो चुकी है | 502/से-10ए, गुरुग्राम, हरियाणा। 9990745436 ईमेल[email protected]