बंजारे- गाड़ी ही है इनका स्यंदन
हम महलों में रहने वाले, सच्चे सुख को कैसे जानें?
सच्चा सुख कैसा होता है, यह तो बस बंजारे जानें.
हम सच्चे सुख को पाते हैं, ईद-दिवाली-क्रिसमस मनाकर,
ये हर रोज रहें मुस्काते, आंधी-पानी-मिट्टी सहकर.
हमको महल भी लगता बौना, देख पड़ोसी का दोमहला,
एक खुली गाड़ी ही इनको, सच्चे सुख से देती नहला.
लाख-करोड़ की दौलत पर हम, रात-दिवस देते हैं पहरा,
सुख की नींद इन्हें आती है, कभी न देना पड़ता पहरा.
जोड़े अगर बीस मिल जाएं, हम चाहेंगे तीस बनें,
इनको वेष एक मिल जाए, रानी जैसी बनें-ठनें.
हम तन का श्रंगार करें जब, आभूषण का ढेर लगे,
इनका केवल एक गोदना, उसमें ही ये भली लगें.
नकली आयोजन कर पाते हम, हंसने के मुश्किल से दो पल,
ये हरदम खिलखिल करते हैं, कभी न खोजें सुख के छिन-पल.
विद्या इनको नहीं मिली है, कहलाएं ये भले निरक्षर,
पर संतोष का पाठ पढ़ाकर, करते ये साक्षर को साक्षर.
कैसी भी बाधाएं आएं, कभी न घबराना ये जानें,
अपने जीवन की पुस्तक से, सिखलाते शिक्षा अनजाने.
जलती भट्टी में लोहे को, तपा-तपा कर देते कुंदन,
छोटा-सा संसार सुनहरा, गाड़ी ही है इनका स्यंदन.
घूमते हुए बंजारे गाड़ी रूपी स्यंदन (रथ) में रहते हुए भी प्रसन्न रहते हैं.