सदाबहार काव्यालय-23
गीत
चांदनी धुंध में नहाई है
आज मानवता डगमगाई है,
चांदनी धुंध में नहाई है.
पेड़ों से आ रही हैं आवाज़ें
दूर हों हम न इस गुलिस्तां से
दूरी मानव ने खुद बढ़ाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.
तारे रह-रहके टिमटिमाते हैं
भूले-भटकों को पथ दिखाते हैं
राह मानव ने खुद गंवाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.
चन्द्रमा धुंध से ढका ऐसे
मन माया से मलीन हो जैसे
इसी माया से चोट खाई है
चांदनी धुंध में नहाई है.
जुगनू ने आज रट लगाई है
मिलके रहने की कसम खाई है
भेद की चाल क्यों चलाई है?
चांदनी धुंध में नहाई है.
लीला तिवानी
सुन्दर रचना ,लीला बहन .
आज भले ही मानवता डगमगाई है और चांदनी धुंध में नहाई है, फिर भी जुगनू ने आज मिलके रहने की कसम खाई है और भेदभाव की चाल को समाप्त करने की रट लगाई है.