गीत – हंस हुए निष्कासित अब
उजले-उजले लोगों के मन कितने मैले-मैले।
रूप सभी का एक मगर अलग-अलग हैं थैले।।
स्वार्थ, वाद उर भीतर बैठा, मन में अब प्यार नहीं।
प्रीति-रस, गंध से रचा बसा क्या यह संसार नहीं।
रक्षक बन तक्षक हैं बैठे, चहुंओर भेड़िये फैले।।
है अपना, कौन पराया, सब रिश्ते-नाते झूठे।
अर्थ, पद के चहुंओर घूमते, रहते रूठे-रूठे।
बंधु, मित्र, पुत्र बन जाते, आस्तीन के सांप विषैले।।
काले-काले दिन देखे हैं, उजली-उजली रातें।
अपनों को भी करते देखा बदली-बदली बातें।
हंस हुए निष्कासित अब, सम्मानित काक वनैले।।
खूंटी पर टंगे हुए मानवीय आदर्श सुनहरे।
सच्चाई की जिह्वा पर दिवस-निशा रहते पहरे।
हत्यारे, चोर, डकैत घूमते, सजकर बन छैले।।
— प्रमोद दीक्षित ‘मलय’