असार संसार
आ रहे बादल एकाएक,
पवन-पलने पर सिर को टेक.
जा रहे जल्दी ये उस पार,
ढूंढते आज जगत का सार.
सोचते जाते बादल के दल,
आता त्वरित झकोर अनल.
बिखर गए अब सारे बादल,
भंग हो स्वप्न गए सब टल.
तभी आया मन में यह विचार,
जगत असार, नहीं कुछ सार.
स्वप्न-सा देख चला जाता,
मानव छोड़ जगत-जंजाल.
स्वप्न भी होते पूर्ण कहां?
कामना होती चूर्ण यहां.
रहता मानव के उर खेद,
न जाने कैसा यह भेद!
आदरणीय बहनजी ! मानव चाहे जितना ज्ञान विज्ञान का दम्भ भर ले लेकिन वह आज भी प्रकृति के सामने बेबस है । मंगल और चांद तक पहुंचनेवाले इंसान धरती के ही कई रहस्यों से अनजान हैं । ये रहस्य आज भी उनके लिए एक पहेली जैसी ही हैं जिसका कयास तो लगाया जा सकता है लेकिन सच्चाई प्रमाणित नहीं कि जा सकती । अति सुंदर रचना के लिए आपका धन्यवाद ।
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. आपने बिलकुल दुरुस्त फरमाया है. संसार का रहस्य समझना बहुत बड़ी और मुश्किल बात है. इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.
लीला बहन ,कविता अछि लगी . संसार का रहस्य समझना बहुत बड़ी और मुश्किल बात है .
संसार का रहस्य समझ में आने से पहले ही खेल खत्म हो जाता है. संसार का रहस्य समझ में आ जाए तो क्या कहने!