राजपथों ने दिया भरोसा तोड़ दिया है…
राजपथों ने दिया भरोसा तोड़ दिया है
पगडंडी लाचार करे भी तो आखिर क्या
ऊजड़ होते गाँव सूखते खलिहानो में
जीवन की उम्मीद ढूँढ़ती बूढ़ी नज़रें
कभी मना करती थी उनके गाँवों में जो
दीवाली वो ईद ढूँढ़ती बूढ़ी नज़रें
पास नही बुधिया चाचा के रुपया पैसा
ऊपर से बीमार करे भी तो आखिर क्या…
उजड़े आँगन टूटे छप्पर टूटे सपने
कुछ यादें है शेष निशानी बाकी है कुछ
रो रो कर पथराए दर्द भरे नयनों में
उम्मीदों का अब भी पानी बाकी है कुछ
बीत रहा है ग्रामीणों का जीवन यूँ ही
विपदा में लाचार करे भी तो आखिर क्या..
साथ भोर के नित बढ़ते इन अँधियारों को
चकाचौंध में रहने वाले क्या समझेंगे
इन अधरों की बूँद-बूँद पानी की तृष्णा
सुख सागर में बहने वाले क्या समझेंगे
मौन गाँव अपने अधरों को मुखरित करके
दे उनको विस्तार करे भी तो आखिर क्या…
जैसे कदली की परतों में केवल परतें
वैसे सत्ता की बातों में केवल बातें
क्यूँ कर देंगे अँधियारे दिन उन्हें दिखाई
उनकी चकाचौध है मावस की भी रातें
भ्रष्ट तंत्र अंधा बहरा है कौन सुनेगा
करके दीन पुकार करे भी तो आखिर क्या…
सतीश बंसल
१०.०१.२०१८