ग़ज़ल
कभी तेरी भी’ चाहत हो, मिले आ जाये’ है मुझसे
नज़ाकत से उठे घूँघट, तू’ शर्मा जाये’ है मुझसे |
तकाज़ा-ए-निगह तेरी, पकड में हो मेरी जब भी
पशेमां और उलझन में, तू’ घबरा जाए’ है मुझसे |
रवैया संत के, सबको किया शर्मिन्दा’ दुनिया में
न तुमसे वो सुना जाए न बोला जाए’ है मुझसे |
समय को मैं कहूँ क्या और, ढाया वह कहर मुझ पर
फिसलना वय का दामन भी, छूटा जाए’ है मुझसे |
हवादिस टूटना अब तो, तहम्मुल कर नहीं सकते
फुगाँ-ओ-खूंचकाँ लाशें न देखा जाए’ है मुझसे |
ज़माना अब बहुत बदला, नहीं है वक्त नेकी का
न नकली बात, वो रिश्ते निभाया जाये’ है मुझसे |
नबर्दे इश्क ने “काली” किया ज़ख्मी अनोखा है
न कोई देख सकता, या दिखाया जाए’ है मुझसे |
शब्दार्थ : तकाज़ा-ए-निगह= देखने की इच्छा
पशेमाँ =लज्जा, लज्जित
हवादिस= दुर्घटना, तहम्मुल= सहन
फुगाँ= आर्तनाद, खूंचकाँ= रक्तरंजित
नबर्दे इश्क= इसक के संघर्ष
कालीपद ‘प्रसाद’