खुदगर्ज !
पाषाण, अस्थिर पल पल बदलती,
उन रिक्त नैनो से रह रह झलकती !
शून्य से थमती उभरती धड़कते भी ,
अब हो चुकी है यूं
बोझिल उनकी शक्ति!
कभी उम्मीदों का दामन थामे वो बेजान तन,
नस नस में दोड़ती फिर सैंकड़ो आहें मचलती !
तुम्हारी खुदगर्जी और अपनों के वाण छलनी करते मन मस्तिष्क भी ,
बुना न दे बेजान उस बुत को जिसमें जीने की आस सिसकती!
बड़ा लो कदम तुम अब बस फायदा और नुकसान की न सोचो ,
न वापिस मिलेंगे वो पल क्योंकि उम्र पल पल जाए ढलती !
कामनी गुप्ता ***
जम्मू !
सुन्दर रचना .
धन्यवाद सर जी !