गज़ल
किसी के पास जाने से मुझे कुछ डर सा लगता है,
बेवजह मुस्कुराने से मुझे कुछ डर सा लगता है
थोड़ा टूट जाता हूँ मैं खुद हर बार साथ इनके,
नए सपने सजाने से मुझे कुछ डर सा लगता है
निकलना फिर ना पड़ जाए कहीं बेआबरू होकर,
अब महफिल में आने से मुझे कुछ डर सा लगता है
आदत हो गई है इस कदर खामोशियों की अब,
गीत कोई गुनगुनाने से मुझे कुछ डर सा लगता है
पढ़ा है जब से मैंने मीर, गालिब और मुनव्वर को,
गज़ल कोई बनाने से मुझे कुछ डर सा लगता है
— भरत मल्होत्रा