क्या सर्वोच्च न्यायालय के विश्वसनीयता पर लग गया प्रश्न चिन्ह ?
लोकतंत्र के चार स्तंभ विधायिका , कार्यपालिका , मीडिया और न्यायपालिका है , जिनमे पहले तीन स्तंभों पर यदा कदा सवाल उठाए जाते रहें हैं या सवाल उठते रहें हैं । लेकिन लोकतंत्र का चौथा महत्वपूर्ण स्तंभ न्यायपालिका सदैव इससे अछूता रहा है । क्योंकि जहाँ एक ओर आज भी देश में न्यायपालिका पर जनता का विश्वास बेहद दृढता से कायम है वहीं दूसरी ओर न्यापालिका अवमानना अधिनियम 1971 के तहत सजा का प्रावधान भी ऐसा करने से रोकता रहा है। लोकतंत्र के ढांचा को बरकरार रखने हेतु यह आवश्यक है कि जनता में न्यायपालिका की विश्वसनीयता बनी रहे क्योंकि किसी भी आपराधिक मामले या फिर केन्द्रीय सरकार और राज्य सरकारों की टकराहट की हालत में भी आखिरी दरवाजा न्यापालिका का ही होता है जिसका फैसला सर्वमान्य होता है । ऐसी हालात में जब देश , देश की सरकारे, जनता हर मुश्किल हालात में न्यायपालिका के शरण में जाती है तब सर्वोच्च न्यायालय के वरिष्ठ न्यायाधीशों द्वाया प्रेस कान्फ्रेंस कर खुद को जनता के समक्ष निसहाय महसूस करवाना कितना जायज है ?
पिछले दिनों जब सर्वोच्च न्यायालय के चार वरिष्ठ न्यायधीश जस्टिस जे चेलमेश्वर , जस्टिस रंजन गोगोई , जस्टिस कुरियन जोसफ और जस्टिस एम बी लोकुर ने प्रेस कांफ्रेंस कर अपने ही संस्था के मुख्य न्यायधीश जस्टिस दीपक मिश्रा पर गंभीर आरोप लगाते हुए कहा कि मुख्य न्यायधीश केस आवंटित करने का काम न्यायसंगत तरीके से नहीं कर रहें है तथा उन्होंने यह भी कहा की प्रेस कांफ्रेंस के पहले उन्होंने एक चिट्ठी मुख्य न्यायाधीश को लिखी थी जिसमें उन्होंने अपनी समस्याओं और मतभेदों से अवगत करवाया था लेकिन मुख्य न्यायधीश ने उसका संज्ञान ठीक से नहीं लिया यही कारण रहा कि वे जनता की अदालत में प्रेस कांफ्रेंस के माध्यम से आएं है । अब इसमें कुछ बिंदुओं पर विचार विमर्श की आवश्यकता है । मुख्य न्यायधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों का अधिकार क्षेत्र क्या है ? , न्यायाधीशों द्वारा लिखे पत्र का विश्लेषण , क्या न्यायधीशों के पास एक यही आखिरी विकल्प बच गया था ? क्या सचमुच लोकतंत्र खतरे में है ? तो सबसे पहले मुख्य मुद्दा है केसों के आवंटन का अधिकार क्षेत्र तो इस विवाद का मूल भी है कि इसमें कोई संदेह नहीं कि मुख्य न्यायधीश और सर्वोच्च न्यायालय के बाकी वरिष्ठ न्यायाधीशों का किसी केस को सुनने और उसपर फैसले का अधिकार एक समान है लेकिन परम्परा के साथ यह मुख्य न्यायधीश का विशेषाधिकार है कि वह केसों का आवंटन कैसे और किसे करता है । जैसे ही बात किसी एक व्यक्ति विशेष के पद की विशेषाधिकार की आती है निसंदेह उस पद पर बैठा व्यक्ति अपने स्वविवेक से ही निर्णय लेगा और उसे ऐसा करना भी चाहिए । ऐसे में मुख्य न्यायधीश के बाद के न्यायधीशों का कार्य होता है उन्हें आवंटित की गई केसों की सुनवाई , उसपर निर्णय देना । ऐसा में मुख्य न्यायधीश के केस आवंटन पर प्रश्न चिन्ह लगाना न उनके अधिकार में है न न्याय संगत है । अगर न्यायधीश प्रेस कांफ्रेंस कर के यह कह रहे कि मुख्य न्यायधीश केस के आवंटन में भेदभाव कर रहें है तो फिर ऐसा क्यों न सोचा जाए कि अन्य न्यायधीश भी किसी से प्रभावित होकर मन मुताबिक केस पाना चाहते है ? यह एक विचारणीय प्रश्न है । अब आगे बढते हुए न्यायधीशों ने जो पत्र लिखा मुख्य न्यायधीश को उसका एक छोटा विश्लेषण करते हैं । अपने ही संस्था के मुख्य न्यायधीश को पत्र लिखते वो कहते है कि यह पत्र वे इसलिए लिख रहें है ताकि इस अदालत से जारी किए गए कुछ आदेशों को चिन्हित किया जा सके , जिन्होंने न्याय देने कि पुरी कार्यप्रणाली और उच्च न्यायालयों की स्वतंत्रता के साथ भारत के सर्वोच्च न्यायालय के काम करने के तरीकों को बुरी तरह प्रभावित करके रख दिया है । इतना कहकर वे आगे के पत्र में अपनी न्यायालय की स्थापना , उसके अस्तित्व और औचित्व पर आ जाते है लेकिन किसी खास केस का जिक्र नहीं करते जिसमें अदालत ने गलत फैसला लिया है । यह देश की जनता के सर्वाधिक रूप से असमंजस की हालत है । जिस संस्था पर उनका दृढ विश्वास रहा है उसपर ही उनके ही न्यायधीशों द्वारा लगाया आरोप आम जन को संशय में डालता है और पत्र पढकर ऐसा महसूस होता है कि उनकी कोशिश भी संशय में डालना ही है न कि मुद्दे से अवगत करवाना ।जैसा कि मैने उपर कहा कि मुख्य न्यायधीश का विशेषाधिकार है केसों का आवंटन , इसे वरिष्ठ न्यायाधीशों ने अपने पत्र में महज परंपरा कहा है तो सवाल यह उठता है कि यह महज एक परंपरा है कोई विशेषाधिकार नहीं तो क्या यह परंपरा बदली जा सकती है ? और न्यायधीश अपने केसों का निर्धारण स्वयं कर सकते हैं ? और अगर ऐसा नहीं है तो इसे महज परंपरा न कहकर मुख्य न्यायधीश का संवैधानिक विशेषाधिकार समझना चाहिए । वे आगे लिखते हैं कि वे इसका पूरा विवरण इस लिए नहीं दे रहे कि सर्वोच्च न्यायालय को शर्मिंदगी उठानी पङेगी । लेकिन सवाल उठता है कि अगर शर्मिंदगी की इतनी चिंता थी तो प्रेस कांफ्रेंस क्यों किया और जनता की अदालत में आ ही गये हैं तो फिर लुका छिपी क्यों ? सारी बाते स्पष्टता से क्या नहीं रखनी चाहिए ।और अगर नहीं रख रहे तो इसे अपने निजी हित हेतु जनता को गुमराह करने की कोशिश क्यों न समझा जाना चाहिए ? वे आगे कहते है कि हम यह बताते बेहद निराश हैं कि ऐसे कई मामले हैं जो जिनमें देश और संस्थान पर असर डालने वाले मुकदमें आपने अपनी पसंद के बेंच को सौप दिए , जिनके पीछे कोई तर्क नजर नहीं आता है । तो सवाल उठता है कि क्या अन्य न्यायधीशों को केस के आवंटन में दखल और सवाल पुछने का अधिकार है ? और वे ऐसा करके जिन्हें वे केस मुख्य न्यायधीश द्वारा आवंटित किए गए हैं उनकी विश्वसनीयता पर अंगुली नहीं उठा रहें हैं ? बाकी संपूर्ण पत्र में वे न्यायधीशों की नियुक्ति से संबंधित मेमोरेन्डम आॅफ प्रोसीजर की बात करते हैं गलत फैसले वाले केसों का विवरण नहीं देते हैं ।
अब सवाल उठता है कि उनके पास क्या एक यही विकल्प रह गया था ? , वो चाहते तो ऐसे कुछ और पत्र संपूर्ण विवरण के साथ लिख सकते थे । मुख्य न्यायधीश के साथ अन्य सभी न्यायधीश चर्चा कर कोई हल निकाल सकते थे । अगर कोई संवेधानिक कानूनी कदम उठाना था तो महाभियोग की कोशिश कर सकते थे । लेकिन जनता को प्रेस कांफ्रेंस के जरिए अधुरी जानकारी के साथ अपनी बात रखना इसे राजनीतिक रंग देना होता जो प्रेस कांफ्रेंस के तत्काल बाद शुरू भी हो गया । आखिरी बात जो सभी सम्मानित न्यायधीशों ने कहा कि लोकतंत्र खतरे में है यह भी बेहद अटपटा और बचकाना सा बयान महसूस हुआ क्योंकि जब देश के केन्द्र और सभी राज्यों में जनता द्वारा चुनी संवैधानिक सरकार बिना किसी अवरोध के चल रही है । प्रेस / मीडिया अपना काम स्वतंत्र रूप से कर रहा है । पुलिस प्रशासन और सभी न्यायालय भी अपना काम निर्वाध रूप से कर रहें हैं ऐसे में मुख्य न्यायधीश और अन्य वरिष्ठ न्यायाधीशों के मतभेदों के रसाकसी को लोकतंत्र पर खतरा नहीं कहा जा सकता है । हाँ इसमें कोई संदेह नहीं कि इस प्रकरण ने सर्वोच्च न्यायालय की विश्वसनीयता पर प्रश्न चिन्ह लगा दिया है ।
अमित कु अम्बष्ट ” आमिली “