पांच स्वकार
कितने ही कष्ट पड़ें सहने,
स्वधर्म पालना है हितकर,
स्वधर्म में मरना होता है,
परधर्म में जीने से बेहतर.
स्वभाषा देती राहत है,
जैसे माता की गोद सदा,
इसकी शीतलतम छाया में,
हम फूलें-फलें सदा-सर्वदा.
स्व-संस्कृति का हो ज्ञान हमें,
इसके गौरव का गान करें,
इसकी रक्षा करने को हम,
सौ बार जियें, शत बार मरें.
स्व-साहित्य का रसपान करें,
इससे प्रेरित हो भाव भरें,
इसके विस्तार-वृद्धि हेतु,
जी-जान लगाकर काम करें.
स्वदेश-प्रेम हो जन-जन में,
पूजा हो इसके कण-कण की,
तन-मन-धन अर्पित करके हम,
छवि और निखारें दर्पण की.
ये पांच स्वकार मिलें जब तो,
यह जन्म धन्य हो जाएगा,
कण-कण माटी सोना होगी,
नर विश्ववंद्य हो जाएगा.
लीला बहन , कविता बहुत अछि लगी .स्वभाषा देती राहत है,
जैसे माता की गोद सदा,
इसकी शीतलतम छाया में,
हम फूलें-फलें सदा-सर्वदा. बिलकुल सही है .
आदरणीय बहनजी ! अद्भुत रचना ! सचमुच ये पांच स्वकार मिलें जब तो,
यह जन्म धन्य हो जाएगा,
कण-कण माटी सोना होगी,
नर विश्ववंद्य हो जाएगा ।
हमेशा की तरह अति सुंदर प्रेरक व शिक्षाप्रद रचना के लिए आभार ।
स्वभाषा संजीवनी
और गुणों की खान,
बिन निज भाषा-ज्ञान के,
बने न व्यक्ति महान.