कविता

पांच स्वकार

कितने ही कष्ट पड़ें सहने,
स्वधर्म पालना है हितकर,
स्वधर्म में मरना होता है,
परधर्म में जीने से बेहतर.

 

स्वभाषा देती राहत है,
जैसे माता की गोद सदा,
इसकी शीतलतम छाया में,
हम फूलें-फलें सदा-सर्वदा.

 

स्व-संस्कृति का हो ज्ञान हमें,
इसके गौरव का गान करें,
इसकी रक्षा करने को हम,
सौ बार जियें, शत बार मरें.

 

स्व-साहित्य का रसपान करें,
इससे प्रेरित हो भाव भरें,
इसके विस्तार-वृद्धि हेतु,
जी-जान लगाकर काम करें.

 

स्वदेश-प्रेम हो जन-जन में,
पूजा हो इसके कण-कण की,
तन-मन-धन अर्पित करके हम,
छवि और निखारें दर्पण की.

 

ये पांच स्वकार मिलें जब तो,
यह जन्म धन्य हो जाएगा,
कण-कण माटी सोना होगी,
नर विश्ववंद्य हो जाएगा.

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244

3 thoughts on “पांच स्वकार

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    लीला बहन , कविता बहुत अछि लगी .स्वभाषा देती राहत है,
    जैसे माता की गोद सदा,
    इसकी शीतलतम छाया में,
    हम फूलें-फलें सदा-सर्वदा. बिलकुल सही है .

  • राजकुमार कांदु

    आदरणीय बहनजी ! अद्भुत रचना ! सचमुच ये पांच स्वकार मिलें जब तो,
    यह जन्म धन्य हो जाएगा,
    कण-कण माटी सोना होगी,
    नर विश्ववंद्य हो जाएगा ।
    हमेशा की तरह अति सुंदर प्रेरक व शिक्षाप्रद रचना के लिए आभार ।

  • लीला तिवानी

    स्वभाषा संजीवनी
    और गुणों की खान,
    बिन निज भाषा-ज्ञान के,
    बने न व्यक्ति महान.

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