ग़ज़ल – आजकल
बेखुदी की जिंदगी है आजकल ।
खूब सस्ता आदमी है आजकल ।।
जी रहे मजबूरियों में लोग सब।
महफिलों में ख़ामुशी है आजकल ।।
लग रही दूकान अब इंसाफ की ।
हर तरफ़ कुछ ज़्यादती है आजकल।।
छोड़ कर तन्हा मुझे मत जाइए ।
कुछ जरूरत आपकी है आजकल ।।
अब नहीं मिलता कोई मुझसे यहां।
बर्फ रिश्तों पर जमी है आजकल ।।
आपके हर कातिलाना वार से ।
फैल जाती सनसनी है आजकल ।।
मैकदे में शोर बरपा है बहुत ।
जाम पर रस्सा कसी है आजकल।।
रिन्द खोते जा रहे सारा अदब ।
जाने कैसी तिश्नगी है आजकल।।
हुस्न पर पर्दा न इतना कीजिये ।
हुस्न की ही बन्दगी है आजकल ।।
क्या भरोसा रह गया है यार का ।
वह निभाता दुश्मनी है आजकल ।।
अब नहीं जाना मुझे उसकी गली ।
वह कहाँ पहचानती है आजकल।।
इक हसीना खेलने के वास्ते ।
दिल हमारा मांगती है आजकल ।।
— नवीन मणि त्रिपाठी