रिश्ते
सारे रिश्ते बेमानी लगते हैं ,
हो जाते हैं वो भी दूर
जो ख़्वाबों में अपने लगते हैं ।
तिलिस्म है ये झूठी दुनिया का ,
कौन किसी का होता है,
दर्द है सिर्फ अपना ,
दूर नजारे लगाते हैं ।
उड़ने की जंग में ,
पंख भी टूट जाते हैं ,
दिलों के हौसले ,
फिर भी चलने को कहते हैं ।
आवारगी भाने लगती है ,
छोड़ कर नफरतों के बुत ।
वो देखो पाकर सूरज की किरण ,
पंक्षी भी चहचहाने लगते हैं ।
नित प्रतिदिन समझाते हैं दिल को ,
उमड़ते हुए पैमाने ,
मानो शराब के जाम भी
लड़खड़ाने लगते हैं ।
वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़