गज़ल
अपने हालात पर झुंझला रहा हूँ,
आज खुद से ही मैं शरमा रहा हूँ,
सुबह बच्चों ने माँगे थे खिलौने,
मैं खाली हाथ घर पे जा रहा हूँ,
मुहब्बत तू कभी फुर्सत में आना,
जरूरी काम कुछ निपटा रहा हूँ
कौन उलझे तुम्हारे गेसुओं में,
उलझनें वक्त की सुलझा रहा हूँ
दिन भर का सिला हैं चंद सिक्के,
क्या खोया है और क्या पा रहा हूँ
बदन अपना बना कर कब्र कोई,
सब अपनी ख्वाहिशें दफना रहा हूँ
निगल लो आके अँधेरो मुझे अब,
आखरी चिराग भी बुझा रहा हूँ
— भरत मल्होत्रा