‘बसंत का सुहाना फन’
अपने देश के मौसम-तंत्र के क्या कहने ! अब बसंत को ही ले लीजिए ! मने इसी मौसम-तंत्र का हिस्सा यह ॠतुराज बसंत है। अपने देश में जो राजा टाइप का है, उसी का कद्र होता है । फिर काहे न ॠतुराज का कद्र हो! आखिर कभी आपने सुना है जाड़े की शुभकामना या गर्मी की शुभकामना! नहीं न। यही नहीं, हम भले ही प्यासे मर जाएँ, लेकिन वर्षा-ॠतु की शुभकामना देते कभी किसी को नहीं सुनते! जब कि बरखा-रानी भले ही झूम के बरसे। वैसे भी, महिलाएँ सदैव दोयम दर्जे पर ही रहती हैं पुरुषों के मुकाबले ! भले ही उन्हें रानी की पदवी क्यों न मिल जाए! खैर..
बसंत! की शुभकामनाओं पर श्रीमती जी से बात हुई, तो उन्होंने कहा, “बसंत में सुहाना फन होता है” मैं “सुहाना फन” सुनकर उचका, आखिर मैं भी तो हिन्दी साहित्य का पोस्ट-ग्रेजुएट हूं और उसी के बल पर सरकारी रोटी तोड़ रहा हूँ, सो मैंने श्रीमती जी को समझाया, “फन नहीं पगली, पन ! सुहाना के साथ फन नहीं पन होता है..सुहानापन !” बस फिर क्या था वे मुझपर भड़क उठी, बोलीं, “टी वी सीरियल ‘भाभी जी घर पर हैं’ का मुझे अंगूरी समझ रखा है क्या..जो समझाने चले हो! मुझे भी सब पता है..लेकिन मैं ऐसे बसंत में सुहाना फन नहीं देख रही..अपनी बेवकूफी छोड़ो तो तुम्हें मेरी बात समझ में आए।” इसके बाद लगभग बेवकूफी छोड़ने का जताते हुए उनसे बोला, “हाँ यार.. सही कहा..इस फन में तो बड़े गहरे अर्थ छिपे हैं..!” खैर जान बची लाखों पाए के अंदाज में बातचीत समाप्त हुई, तो बसंत के सुहाने-फन पर, मैं भी गौर करने लगा।
वाकई! बसंत में सुहाना फन होता है.. इसमें गर्मी नहीं जाड़ा नहीं.. और बरसात की किचपिच नहीं। इसीलिए तो बसंत में फन ही फन है…पूरा लोक, बसंत के इस फन में डूब जाता है, और इसके फन में ही होली का हुड़दंग है! लेकिन भइए! अब यह ॠतुराज कहाँ रहा? इसे हम जबर्दस्ती का ॠतुराज माने हुए हैं। क्योंकि यहाँ लोक नहीं, तंत्र है, अब तंन्त्र का राज है ! इसीलिए यह ॠतुराज बसंत अपनी जान बचाने चुपके से लोक के गलियन से, कुंजन से, वन-बाग-तड़ागन से और पहाड़न से भाग कर लोकतंन्त्र में चला आया। मने गलियन में, कुंजन में, खेतन में, पहाड़न में नहीं, लोकतंत्र में बसंत मिलता है।
बसंत लोकतांत्रिक हो लिया है!! क्योंकि यह तंन्त्र भी बड़ा ‘फनी’ टाइप का होता है। इसीलिए तंत्र को “फन” चाहिए और उसने लोक से बसंत को सुड़क लिया ! फिर भी यह लोक इस तसल्ली के साथ अपने में मगन है कि, चलो लोकतंत्र में बसंत है। और इधर, गर्मी और बरसात की चिन्ता किए बिना चौबीसों घंटे बारहों महीने बसंत के नशे में फन फैलाए यह लोक का तंत्र! अपने खूबसूरत लोकभवन में नाचता रहता है। हाँ, जब भी किसी ने इसके ‘फन’ को कुचलने की कोशिश की, तो बस यही कहा जाता है, वह देखो! वह लोकतंत्र की हत्या कर रहा है। फिर लोक नाराज!! अब तो इतिसिद्धम! कि लोकतंत्र में बसंत है।
हाँ श्रीमती जी ने बसंत में “फन” कह कर मेरी आँख खोल दी। जबकि अभी तक मैं अपनी अनिश्चयात्मिका बुद्धि के साथ लोकतंत्र और बसंत के बीच “का” और “से” का संबंध फिट करने में ही उलझा हुआ विचरण कर रहा था। मेरी अपनी अनुभवार्जित मति जैसी मारी गई थी!! मैंने अपने अंदर नहीं झाँका! पहले मैंने यही सोचा था, “हो न हो “लोकतंत्र का बसंत” होता होगा, आखिर चुनावों में कितनी रौनक छायी रहती है, जैसे पूरे लोक का लह लग जाता है!” फिर मन में आया कि ऐसा कैसे? चुनाव तो पाँच साल बाद आते हैं और बसंत तो हर साल आता है, अतः लोकतंत्र का बसंत सही नहीं हो सकता। आखिर में, बड़ी ऊहापोह के बाद “लोकतंत्र से बसंत है” पर जाकर यह सोचकर मन स्थिर कर पाया था कि, “यदि लोकतंत्र न होता तो हर साल बजट भी न मिलता, और यदि बजट खर्च करने को न मिलता, तो मुझे बसंत का अहसास भी न होता..फिर तो मेरे जैसों के लिए लोकतंत्र से ही बसंत है।”
लेकिन “लोकतंत्र में बसंत” के आप्शन के साथ ही लोकतंत्र और बसंत के बीच “का” और “से” वाला संबंध भी एकदम से खतम। वाकई! मैं लोकतंत्र और बसंत में रिलेशन स्थापित करने में चूक कर गया था। इस मामले में मेरी अपनी दिक्कत भी यही थी कि, बुन्देलखण्ड में बसंत को ढूँढ़ना बहुत बड़ी टेढ़ी खीर है…मुझ जैसे लोक के तंत्र वालों ने अपने फन के चक्कर में सही में, यहाँ के लोक से बसंत को सुड़क लिया ! भले इसे हम सूखे का प्रभाव कह लें या फिर कुछ और, लेकिन यहाँ के लोक से बसंत अपदस्थ हो ही चुका है। इधर हम अपने बचाव में एक मंझे तांत्रिक की तरह यहाँ के लोक को अबरा-का-डबरा सुनाते हुए “बिगरयौ टाइप का बसंत है” जैसी बात कह कर भरमाते रहते हैं।
हाँ, लोकतंत्र में ही बसंत है, प्रत्येक निश्चयात्मिका बुद्धि वाला नि:सन्देह इसे स्वीकार कर लेगा !! वाकई लोकतंत्र में रहते हुए यह बसंत “बिगरयौ” नहीं “सुधरयौ” टाइप का बन चुका है, जो अब तंन्त्र में बेहद सुरक्षित है। इसे लफ्फाजी समझ, बात को हवा में न उड़ाएँ…यह बात मैं आपको समझाए देता हूँ..!