गज़ल
खुशियों में मिला के थोड़ा रंज-ओ-गम भी पीते हैं
हँसी की महफिलों में करके आँखें नम भी पीते हैं
रहना है बहुत मुश्किल यहां अब होशमंदी से
होकर बेखबर दुनिया से आओ हम भी पीते हैं
भीगे रेशमी तारों से अक्सर मय बरसती है
लगता है तेरी जुल्फों के पेच-ओ-ख़म भी पीते हैं
यूँ तो जाम से कुछ खास यारी है नहीं अपनी
साथ पर यार बैठे हों तो फिर पैहम भी पीते हैं
बहाना चाहिए पीने का बस इन पीने वालों को
मौसम में भी पीते हैं, बिना मौसम भी पीते हैं
सुबह से शाम जो कहते हैं मयनोशी नहीं अच्छी
छुप कर रात में वो वाइज़-ए-आलम भी पीते हैं
— भरत मल्होत्रा