ईश्वर का सत्य व यथार्थ स्वरूप जानने का सरल उपाय
ओ३म्
मनुष्य के जन्म के बाद जब वह कुछ दिनों के बाद कुछ कुछ जानना व समझना आरम्भ कर देता है तो वह संसार को देखकर आश्चार्यान्वित होता है। वह सोचता है कि यह संसार कब व किससे बना होगा? उसके इस प्रश्न का उत्तर उसके पास नहीं होता। वह दूसरों से पूछता है तो भी उसे अपने प्रश्न का सही उत्तर व उससे जुड़े कुछ अन्य प्रश्नों के उत्तर नहीं मिलते। धीरे धीरे वह बड़ा होता जाता है। वह जिस मत में जन्म लेता है वैसे ही संस्कार व ज्ञान उसका होता जाता है। वह मिथ्या मत व सिद्धान्त और सत्य में अन्तर नहीं कर पाता। यदि कर पाता तो मत-मतान्तरों के लोग ईश्वर व जीवात्मा के विषय में मिथ्या जान न रखते और न मत-मतान्तरों की पुस्तकों में अविद्यायुक्त कथन ही होते। अतः उसे सृष्टि की रचना विषयक अपने प्रश्न का उत्तर जानने के लिए एक सद्गुरु या किसी ऐसे ग्रन्थ की आवश्यकता होती है जिसे पढ़कर वह अपने प्रश्नों के सत्य समाधान प्राप्त कर सके। प्रश्न है कि क्या ऐसे सद्गुरु संसार में हैं व क्या ऐसी कोई पुस्तक संसार में है जिसे पढ़कर मनुष्य इस संसार व इसके रचयिता के विषय में यथार्थ ज्ञान प्राप्त कर सके। इसका उत्तर हां में हैं। ईश्वर व सृष्टि की रचना को जानने वाले विद्वान भी हैं ओर हिन्दी अंग्रेजी व अनेक भाषाओं में इन सभी प्रश्नों का समाधान करने वाली पुस्तकें भी हैं। वह विद्वान कौन है और उस पुस्तक का नाम क्या है? इसका उत्तर है कि सभी ऋषि दयानन्द भक्त विद्वान इन प्रश्नों का सत्य व विवेकपूर्ण उत्तर दे सकते हैं और ऋषि दयानन्द का बनाया हुआ सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ भी इस प्रश्न का यथार्थ उत्तर प्रस्तुत करता है। सत्यार्थप्रकाश हिन्दी भाषा में रचित होने के कारण साधारण हिन्दी का ज्ञान रखने वाला व्यक्ति भी ईश्वर के यथार्थ स्वरूप सहित इस सृष्टि की उत्पत्ति के रहस्य, कारणों व उद्देश्य आदि के बारे में जान सकता है।
सत्यार्थप्रकाश में ऋषि दयानन्द ने मनुष्य की आत्मा में उठने वाली प्रायः सभी जिज्ञासाओं को प्रस्तुत कर उनका ईश्वरीय ज्ञान वेद एवं वेदानुकूल शास्त्रों के आधार पर समाधान किया है। इनमें से एक विषय ईश्वर के अस्तित्व व उसके स्वरूप पर भी है। ऋषि दयानन्द ईश्वर को सच्चिदानन्दस्वरूप वाली सत्ता बताते हैं। सच्चिदानन्द का अर्थ है कि ईश्वर सत्य है, चेतन है और आनन्द से परिपूर्ण है। संसार में दो प्रकार के पदार्थ देखते वह जानते हैं। एक आकारवान हैं और दूसरे आकार रहित। ईश्वर का कोई आकार नहीं है। वह आकार से रहित है अर्थात् निराकार है। संसार में सभी चेतन प्राणी अल्प शक्ति से युक्त हैं। वह सर्वशक्तिमान नहीं है। हम जब ईश्वर की रचना सृष्टि व उसके सूर्य, पृथिवी, चन्द्र, अन्य ग्रहों एवं लोक लोकान्तरों पर दृष्टिपात करते हैं तो यह हमें किसी मनुष्य आदि प्राणियों के द्वारा रचित प्रतीत नहीं होते। यह कार्य उनकी क्षमता में नहीं है। इन्हें बनाने वाली सत्ता का सर्वशक्तिमान होना अवश्यम्भावी है। विचार करने पर ईश्वर जो सृष्टिकर्त्ता है वह सर्वशक्तिमान एवं सर्वज्ञ सिद्ध होता है। हम संसार में अनेक प्राणियों को देखते हैं। इन प्राणियों को बनाने वाला भी सृष्टि का अत्युत्तम प्राणी मनुष्य नहीं है। इन्हें किसने बनाया है, इस पर विचार करने ईश्वर ही इनका रचयिता सिद्ध होता है। प्रश्न उठता है कि उसने इन प्राणियों में भेद उत्पन्न क्यों किया? वेद, वैदिक साहित्य और अपनी बुद्धि से विचार करने पर विदित होता है कि यह मनुष्य एवं प्राणियों में विद्यमान चेतन आत्माओं के पूर्व जन्मों में किये गये पाप व पुण्य कर्मों में भिन्नता के कारण से है। जिन लोगों ने अच्छे कर्म अधिक किये थे वह सभी मनुष्य बने हैं और जिन्होंने अच्छे कर्म कम व बुरे कर्म अधिक किये थे वह पशु, पक्षी आदि अनेकानेक प्राणी योनियों में उत्पन्न किये गये हैं। ईश्वर के न्यायकारी होने से ऐसा हुआ है। यदि ईश्वर व उसका न्याय न होता तो फिर यह भिन्न भिन्न योनियां न होती और न ही सुख व दुःख होते। यदि प्राणियों की आकृति व शरीरों में भिन्नता है तो इसका कारण प्राणियों के पूर्व जन्म के पाप व पुण्य कर्म ही हैं जिनका सुख व दुःख रूपी परिणाम परमात्मा हमें व अन्य योनियों के प्राणियों को भोग करा रहा है। इसी कारण से ईश्वर न्यायकारी कहलाता है।
वेद और ऋषि दयानन्द ईश्वर को दयालु स्वभाव वाला बताते हैं। दयालु का अर्थ है कि जिसमें दया का गुण विद्यमान हो। ईश्वर सभी जीवों व प्राणियों पर दया करता है इसीलिए उसे दयालु कहा जाता है। जो प्राणी पाप व बुरे कर्म करते हैं उन्हें परमात्मा दण्डित करते हैं। इस दण्ड के पीछे परमात्मा का उद्देश्य उनके स्वभाव व व्यवहार में सुधार करना होता है। माता-पिता भी अपनी सन्तानों को अच्छे कार्य करने की शिक्षा देते हैं परन्तु यदि वह बार बार कोई गलती करें तो उन्हें दण्डित करते हैं जिससे पीड़ित होकर वह उस कार्य को करना छोड़ दते हैं। हमें यदि यह ज्ञात हो कि हमें हमारे सभी बुरे कर्मों का दण्ड मिलेगा तो हम अनुमान करते हैं कि हम कदापि कोई बुरा कर्म नहीं करेगें। अतः प्राणियों के अच्छे व बुरे कर्मों का सुख व दुःख रूपी फल देने पर भी परमात्मा दयालु ही सिद्ध होता है। किसी न्यायाधीश को किसी अपराधी को दण्ड देने पर कोई बुरा नहीं कहता। अतः परमात्मा भी लोगों को उनके कर्मों के अनुसार सुख व दुःख देने पर भी दयालु ही सिद्ध होता है। हां, यदि परमात्मा व कोई अन्य मनुष्य किसी अन्य को बिना बुरा कार्य किये पीड़ा व दुःख पहुंचाता है तो उसे दयालु न होकर कू्रर स्वभाव का माना जायेगा। ईश्वर के बारे में ऐसा होना इसलिए सम्भव नहीं है क्योंकि ऐसा करने के पीछे उसका न तो कोई स्वार्थ है न उसमें किंचित अज्ञान है। धार्मिक स्वभाव का होने के कारण ईश्वर हर स्थिति में दयालु स्वभाव वाले ही रहते हैं।
परमात्मा की कभी उत्पत्ति नहीं हुई। वह अनुत्पन्न है। परमात्मा जीवात्मा की भांति मनुष्य आदि योनियों में कभी जन्म नहीं लेता। इसी कारण उसे अजन्मा कहा जाता है। अवतारवाद की कल्पना असत्य एवं भ्रामक है। यह यथार्थ सिद्धान्त नहीं है। वेदों में अवतार न तो उल्लेख है और न इसे तर्क से सिद्ध किया जा सकता है। ईश्वर का सृष्टि में कभी अवतार व जन्म नहीं हुआ है। वह सर्वव्यापक व निराकार है और हमेशा इसी स्वरूप विद्यमान रहेगा। सर्वशक्तिमान होने से वह अपने सभी कार्य बिना जन्म लिये कर सकता है। बलवान से बलवान व हिंसक को निराकर स्वरूप यथोचित दण्ड भी दे सकता है। ईश्वर का एक गुण उसका अनन्त होना है। ईश्वर का न तो आदि है और न अन्त है। जिनका आदि व आरम्भ होता अन्त भी उसी का होता है। ईश्वर इन सबसे पृथक होने के कारण अनादि व अनन्त है। ईश्वर का एक गुण व स्वरूप निर्विकार होना है। निर्विकार का अर्थ है कि उसमें कभी विकार नहीं होता। विकार भौतिक पदार्थों में हुआ करता है। इसका कारण संयोग व वियोग होना होता है। ईश्वर का भौतिक पदार्थों जैसा संयोग व वियोग न होने से वह निर्विकार अर्थात् सदा शुद्ध व पवित्र रहता है। ईश्वर संसार में अनुपम सत्ता है। कोई उसके समान नहीं है। वह ज्ञान व गुणों में सर्वश्रेष्ठ व सर्वोत्तम है। वह सभी भक्तों के उपास्य हैं। सभी भक्तों को उनसे सुख मिलता है। परमात्मा की यह सृष्टि भी सर्वांग सुन्दर है। जब परमात्मा के बनाये ये नाना प्रकार के पुष्प एवं जीव-जन्तु आदि सुन्दरता में अद्वितीय हैं तो इन्हें बनाने वाला ईश्वर तो अवश्य ही इनसे भी अधिक सुन्दर होगा। ईश्वर सबका आधार है। यह सूर्य, पृथिवी, चन्द्र व समस्त ब्रह्माण्ड उसी ने धारण किये हुए हैं। यदि वह इन्हें धारण न करता तो यह एक दूसरे से दूर रहकर अपनी अपनी कक्षाओं में गति नहीं कर सकते थे। आपस में टकरा कर चूर चूर हो जाते। ईश्वर के धारण करने से यह ईश्वर के बनाये नियमों में गति कर रहे हैं और ऐसा होने से यह संसार व्यवस्थित चल रहा है। ईश्वर के अनेक वा असंख्य गुण, कर्म व स्वभाव हैं। उनका विस्तार न कर केवल यही निवेदन करते हैं कि ईश्वर सर्वेश्वर, सर्वव्यापक, सर्वान्तर्यामी, अजर, अमर, अभय, नित्य, पवित्र और सृष्टिकर्त्ता भी है। सभी मनुष्यों को वेद वर्णित इन गुणों वाले ईश्वर की प्रातः व सायं उपासना करनी चाहिये।
ईश्वर को जानने का सरल उपाय वेद एवं वैदिक साहित्य का स्वाध्याय व अध्ययन है। इनसे भी सरलतम साधन ऋषि दयानन्द जी का सत्यार्थप्रकाश ग्रन्थ व उनके ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका, आर्याभिविनय आदि अन्य ग्रन्थ हैं। हम इन्हें पढ़कर ईश्वर को कुछ कुछ जान सके हैं। संसार में मत-मतान्तरों के अन्य ग्रन्थों को पढ़कर ईश्वर का ज्ञान होने के स्थान पर भ्रान्तियां उत्पन्न होती हैं। उनसे ईश्वर के सत्य स्वरूप का ज्ञान नहीं होता। अतः जिज्ञासु मनुष्यों को प्रथम सत्यार्थप्रकाश व ऋषि दयानन्द जी के ग्रन्थों का अध्ययन ही करना चाहिये। इसके बाद उपनिषद, दर्शन ग्रन्थों व वेदभाष्य का अध्ययन करना चाहिये। इसी के साथ हम इस संक्षिप्त चर्चा को विराम देते हैं। ओ३म् शम्।
–मनमोहन कुमार आर्य