गज़ल
नहीं होता जो किस्मत में उसी से प्यार करता है,
ना जाने क्यों खता इंसान ये हर बार करता है
मर्ज़-ए-इश्क की दुनिया में है कैसी रिवायत ये,
दवाएँ भी वही देता है जो बीमार करता है
बहुत रो-रो के माँगा था मुझे जिसने दुआओं में,
नीलामी अब वही मेरी सरे-बाज़ार करता है
बदल जाता है अब इंसान हो मौसम कोई जैसे,
खुशी बाँटो यहाँ जिससे वही गमख्वार करता है
यहां कमतर समझने की किसीको भूल ना करना,
ना हो शमशीर से जो काम वो अशआर करता है
किनारे पर रूके जो रेत आई उनके हिस्से में,
वही पाता है मंज़िल को जो दरिया पार करता है
— भरत मल्होत्रा