लेख – आवश्यकता है दृष्टि को बदलने की
हमारे जीवन की सबसे बड़ी विडंबना ये है कि पसंद है वो प्राप्त नहीं होता और जो प्राप्त है वो पसंद नहीं आता। इससे चित्त में असंतोष जन्मता है जो शांति का नाश कर देता है। हम जिसे आदर्श मानकर उसके जैसा बनने का प्रयास करते हैं वो किसी अन्य के जैसा बनने की चिंता में होता है। कोई भी व्यक्ति संतुष्ट नहीं है। इस संसार के अधिसंख्य लोग अपनी पसंद को प्राप्त करने में अपना जीवन व्यतीत कर देते हैं। बिना इस सत्य को जाने कि हमारी पसंद स्थिर नहीं है। हमें कोई भी वस्तु या व्यक्ति केवल तब तक पसंद आता है जब तक हम उसे प्राप्त ना कर लें। जैसे ही हमें इच्छित वस्तु या व्यक्ति की प्राप्ति हुई हमारी पसंद उससे आगे सरक जाती है। असल में सारा आकर्षण यात्रा का है, मंज़िल का नहीं। जैसे ही यात्रा पूर्ण हुई, सारा आकर्षण जाता रहा। अब नई यात्रा के आकर्षण ने जन्म ले लिया। ये एक अंतहीन यात्रा है जो हम जन्मों-जन्मों से करते आ रहे हैं। ये इच्छाएँ ही हैं जो हमें दोबारा जन्मने पर विवश करती हैं। इस मृगतृष्णा से बचने का एक ही उपाय है कि जो प्राप्त है उसे पसंद करना सीख लीजिए। जो प्राप्त है यदि वही हमें पसंद आ गया तो यात्रा वहीं समाप्त हो गई। अब कहीं और भटकने की आवश्यकता ही नहीं बची। सुख कहीं अन्यत्र नहीं है। हम संपूर्ण सृष्टि को बदलने के प्रयास में जुटे रहते हैं लेकिन आवश्यकता है दृष्टि को बदलने की। हमने ना जाने कितनी बार भूमि बदली लेकिन आवश्यकता है अपनी भूमिका बदलने की। अगर हमने स्वयं में इतना बदलाव कर लिया तो कुछ और की आवश्यकता ही नहीं रहेगी।