गज़ल
क्या कहा ना जाने गुल को बाद-ए-सबा ने
कि गूँज उठे हैं सूनी वादियों में तराने
आज की दुनिया की हैं रस्में ही निराली
नज़रें हैं कहीं पे तो कहीं पे हैं निशाने
किसी भी चीज़ को कभी कमतर ना समझना
माथे की सिलवटों ने भी बदले हैं ज़माने
लाख छुपाई मैंने राहों की मुश्किलेें
मेरी दास्तान कह दी मेरे आब्ला-पा ने
चिराग-ए-दिल जलाओ थोड़ी रोशनी तो हो
शब-ए-फिराक अब लगी है हमको सताने
— भरत मल्होत्रा