चाची को मूंछें होती तो
पान चबाकर पीकों से,
चाचा होंठ किये हैं लाल।
दाढ़ी संग है मूंछ मुड़ाये,
चाचा के हैं चिकने गाल।।
चाचा वाला रुप नहीं जब,
चाचा क्योंकर कहता मैं।
चाची को मूंछें होती तो,
चाचा उनको कहता मैं।।
चेहरे पर हैं क्रीम लगाते,
जुल्फें लहराकर चलते।
नाखून बढ़ाया हाथों का,
पालिस लगाया करते हैं।।
उनसे अच्छी तो चाची हैं,
उनके बाल घने काले।
झाडू लेकर साफ करे-
जो घर में हैं बने जाले।।
चाचा के वस्त्र पहनती हैं,
जब भी धोने को मिलता है।
तब चूड़ी कंगन माथे बिंदी,
उनपर नहीं खिलता है।।
चाचा के कपड़े पहने वो,
सीना तान खड़ी होती।
खिलता हुआ वदन लेकर,
दर्पण पास खड़ी होती।।
अलग खुशी चेहरे की ये,
कभी समझ ना पाया मैं।
चाची क्यों खुश होती थी,
अभी समझ हां पाया मैं।।
चाची के पापा जब उनको,
बेटा कह के बुलाते थे।
बेटा-बेटी के अंतर को तब,
सहज भाव से मिटाते थे।।
।। प्रदीप कुमार तिवारी।।
करौंदी कला, सुलतानपुर
7978869045