व्यंग्य – कहीं… नाक, न कट जाए?
मानव शरीर में अत्यंत ‘अल्पसंख्यक’ होने के कारण नाक को आरक्षण की सुविधा मिली हुई है। वह कटती है और कभी ऊँची भी होती है। दिमाग और दिल भी नाक के समान अल्पसंख्यक वर्ग में ही आते हैं। लेकिन आपने कभी सुना- दिल ऊँचा हो गया या कट गया? दिमाग भी खराब हो सकता है, ज़्यादा से ज़्यादा सुन्न हो सकता है, और बहुत ही हो गया साहब तो-फट सकता है। और भी कुछ विशेष और महत्वपूर्ण अंग हैं जो अल्पसंख्यक समुदाय से संबंध रखते हैं किन्तु उन्हें भी यह सम्मान प्राप्त नहीं हो सका! उन्हें मानव छिपाकर रखता है। वे बेचारे गाली-गलौच की दुनिया तक ही अपना नाम कमा सके हैं। किन्तु नाक की बात ही और है। और मज़े की बात तो यह है कि शाब्दिक प्रहार तो इन “विशेष” अंगों से होता है, लेकिन ‘नीचा होना’ या ‘कटना’ बेचारी नाक को ही पढ़ता है। गलत काम करने की बेशर्मी करते हैं- हाथ, आँख, होंठ, जीभ या दिमाग! लेकिन चकनाचूर होती है-कौन? “नाक”!!! अब यहाँ पर जीभ और दिमाग चालबाज़ और चालाक राजनेताओं की तरह बिना आरक्षण के सारा फायदा उठा लेते हैं। उनका कुछ नहीं बिगड़ता। मानव शरीर में सर्वाधिक ‘उंगली करनेवाले’ ये दोनों- दिमाग और जीभ’ ही है। जो ‘ज़ेड-सुरक्षा’ का फायदा उठाते हुए सारी बदमाशियाँ करते रहते हैं। लेकिन कटना नाक को पड़ता है। दुनियाँ में सारी समस्याओं की जड़ यह “जीभ-नाक-गठबंधन” का ही है। वैसे नाक को ऊँची होने का जो सौभाग्य मिलता है, वहाँ भी भाग्य उससे छल कर जाता है। जब वह किसी के एकल प्रयास से उठती है तो और भी नाकें उसमें अपना ‘नकसुरा’ सुर मिला कर ‘उस ऊँचे होने’ में अपना योगदान घुसेड़ देती हैं। लेकिन बेचारी जब “अकेली कटती’ है तो कोई उसके साथ कंधे से कंधा नहीं मिलाना चाहता!
इन दिनों नाक कटने का राष्ट्रीय प्रदर्शन चल रहा है। मासूम बच्चों से भरी बसों को रोक कर ‘आन-बान-शान’ पर मरनेवाले, गोलियों की बौछार कर मर्दांगी का सबूत दे रहे हैं! मनोरंजन के नाम पर मारकाट और हिंसा का आनंद लिया जा रहा है!! सिनेमा घरों का दहन कर आधुनिक ‘गोरा–बादल’ पद्मिनी की रक्षा के लिए कुकर्तव्य निभा रहे हैं!!! देश में कड़ाके की ठंड है लेकिन हिंसा का अलाव जलाकर गर्मी का मज़ा लिया जा रहा है। बात वही- सैकड़ों साल पहले खिलजी नाम के एक विदेशी आक्रांता ने हमारी नाक काटने की कोशिश की थी। उस समय अगर पैदा हो जाते तो उसकी ईंट-सें-ईंट बाजा देते। लेकिन क्या करें? वह अवसर हमें अब जो मिला है। हम कैसे चूक सकते हैं? हमारे ताऊ जो कह गए हैं- “चार बाँस चौबीस गज, अंगुल अष्ट प्रमाण। ता ऊपर सुल्तान है, मत चुको चौहान।” हम अपनी गरदनें कटवा देंगे, लेकिन साहब! “उस नाक” को कटने तो क्या छिलने भी नहीं देंगे! फिए भले ही संविधान के राष्ट्रीय-उत्सव पर सैकड़ों विदेशी मेहमानों के सामने हमारी भद्द क्यों न पिट जाए? राष्ट्रीय स्तर पर कटी नाक को अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने का इससे अच्छा मौका कब मिलेगा? यही तो समय है दुनियाँ को मुट्ठी में करने का- ‘कर लो दुनियाँ मुट्ठी में।‘
वैसे तो नाक काटने के सैकड़ों मामले इस देश में रोज़ होते रहते हैं। कभी मामा-चाचा-दादा-नाना-ताऊ-भाई या दोस्त के रूप में एक खिलजी तीन साल से तीस साल तक की पद्मिनी को जीते-जी जौहर की आग में झौंक देत है। कभी खिलजिओं की फौज मिलकर किसी पद्मिनी को इस तरह लूटती है कि आत्मग्लानि के जौहर में वह ज़िंदगी भर सुलगती रह जाती है। कुछ पद्मिनियों को तो माँ के गर्भ में ही ये मूंछोंवाले भस्म कर देते हैं जिन पर कोई जायसी कलम चलाने से वंचित रह जाता है। उस अवसर पर मोमबत्ती का उजाला हमारी मर्दांगी और वीरता की निशानी बन जाती है। हमारा खून हिमपात करने लगता है।
नाक, को हमारे समाज में ‘इज्ज़त’ का पर्याय माना गया है तो मूँछों को साहस-पौरुष और वीरता का! नाक की रक्षा के लिए मूँछ को ताव देना और ऐंठना बहुत अच्छी बात है। हमें उस पर मक्खी भी नहीं बैठने देना चाहिए। लेकिन यह भी याद रखिए कि मूँछें, नाक का आधार होती हैं, इसलिए नीचे होती है। कहीं ऐसा न हो कि मूँछ बचाते-बचाते ‘आरक्षित नाक’ ही कट जाए?
— शरद सुनेरी