दर्द….
दर्द का कोई
निश्चित दायरा नहीं होता
ना कोई किनारा
ना कोई तटबंध
जो रोक सके बहाव को;
बस रिसता ही जाता है
कभी धीमे तो कभी तीव्रता से
दर्द के रूप अनेक ….
प्रेम का दर्द; दोस्ती का दर्द;
अपनों का दर्द; रिश्तों का दर्द;
खोने का दर्द; बिछुड़ने का दर्द;
और न जाने ऐसे कितने दर्द….
समय-समय पर आते हैं
और झंझोड़ जाते हैं;
अंतिम क्षण कोई साथ नहीं जाता
ये दर्द भी तो जीते जी मारता है
अंतस का दर्द कभी बंटता नहीं
भले मुस्कुराते चेहरे बता रहे हों,
दर्द थम गया है
ये धोखा सभी देते हैं खुद से
इंसान को खुद ढोने पड़ते हैं
इस पीड़ा का बोझ
कोई साझेदारी नहीं होता….
पर सम्हालना तो पड़ता ही है;
इस दिल को
दर्द की वीरान चुभन से…
हाय! तन्हा इंसान !!
अकेले ही चल पड़ता है
फिर एक नए सफर पे…।