मिठाई और रेखागणित
बरफी होती है चौकोर,
मुझको बहुत सुहाती है,
मीठी-मीठी, ताजी-ताजी,
मुझे बहुत ही भाती है.
लड्डू होता दानेदार,
बड़े मजे से खाती हूं,
ममी से दस पैसे लेकर,
लड्डू गोल ले आती हूं.
पीली-पीली गोल-गोल वो,
रस में डूबी रहती है,
एक चवन्नी पापा दें तो,
एक इमरती मिलती है.
रस्गुल्ले की क्या बतलाऊं!
इसकी महिमा न्यारी है,
गोल भी होता बेलनाकार भी,
रस से भरी पिटारी है.
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यह बाल गीत लगभग 55 साल पहले का का लिखा हुआ है. उस समय लड्डू दस पैसे में और इमरती चार आने में मिलती थी. आज तो इतनी सस्ती मिठाई की कल्पना करना भी मुश्किल है.
ममी मुझको दस पैसे दो,
लड्डू मैं ले आऊंगी,
आधा लड्डू मैं खाऊंगी,
आधा तुम्हें खिलाऊंगी.
लीला बहन , बाल गीत बहुत अच्छा है .
प्रिय गुरमैल भाई जी, यह जानकर अत्यंत हर्ष हुआ, कि आपको रचना बहुत सुंदर लगी. हमेशा की तरह आपकी लाजवाब टिप्पणी ने इस ब्लॉग की गरिमा में चार चांद लगा दिये हैं. ब्लॉग का संज्ञान लेने, इतने त्वरित, सार्थक व हार्दिक कामेंट के लिए हृदय से शुक्रिया और धन्यवाद.